अपनी सहज व सरल भाषा के लिए आज भी याद किये जाते हैं डॉ हरिवंश राय बच्चन

18 जनवरी : पुण्यतिथि पर विशेष

राजेश श्रीवास्तव
डॉ. हरिवंश राय बच्चन का जयंती 27 नवंबर 1907 तथा पुण्यतिथि 18 जनवरी 2003 को है। यानी आज 18 जनवरी 2021 को डॉ बच्चन जी को स्मरण करते हुए कहना है कि वे उत्तर-छायावादी युग के आखिरी स्तंभ और हालावाद के प्रवर्तक थे। जिन्होंने हिंदी साहित्य जगत को अपनी लेखनी से महिमा मंडित किया। महाकाव्य ‘मधुशाला’ रचने अमरत्व कवि गायक डॉ. बच्चन जी, जिन्होंने ‘मधुशाला’ के माध्यम से जीवन को समझाते हुए जीवन के मूल सिद्धांतों पर रोशनी डाली।
मधुशाला’ की लोक में प्रशस्ति या व्याप्ति अपने शिखर पर है, लोगों की जुबान पर है, जन-जन, कण्ठ-कण्ठ में व्यप्त है, तो वहीँ ‘निशा निमंत्रण’ अत्याधुनिक है इसमें जितनी उत्तमता से यतार्थ के प्रति भावनात्मक रिश्ते का दिग्दर्शन कराया गया है वह हिंदी साहित्य में दुर्लभ हैं।
डॉ. बच्चन की ‘मधुशाला’ हालावाद की उत्कृष्ट कृति मानी जाती है क्योंकि यह जितनी लोकप्रिय हुई उतनी किसी भी अन्य कवि की काव्य कृतियाँ प्रसिद्ध नहीं हुईं । ‘मधुशाला’ जितनी प्रिय तब थी, आज भी उससे कम प्रिय नहीं है ।

डॉ. बच्चन की अन्य रचनाएँ ‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’, ‘एकांत संगीत’, ‘आकुल अंतर’ आदि है, जो अपने अंदर गहन पीड़ा और दार्शनिकता समेटे है । वस्तुत: इन कविताओं का खुमार ‘मधुशाला’ से भिन्न है ।

डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी के अनमोल विचार निःसन्देह हमें जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं जो आज भी अपने पाठको – श्रोताओं के दिलों में उनकी अमर रचित कविताएं, अनमोल विचार राज करते हैं। डॉ. बच्चन की भाषा सहज व सरल खड़ीबोली, शैली – गीतात्मक, छंद – मुक़्तक एवं हालावाद के संस्थापक के रूप में डॉ बच्चन का नाम सदैव मान्य स्थान हैं।

हिंदी साहित्य में ‘हालावाद’ की शुरुआत ‘छायावाद’ के बाद हुई । हालावाद की कविताओं में वैयक्तिकता की प्रधानता रही । जिसमें कवि दुनिया को भूलकर स्वयं अपने प्रेम-संसार की प्रेमपूर्ण मस्ती में डूब गए । संसार के सारे दुःख, सारी निराशा और सारी कठिनाइयाँ इसी ‘हालावाद’ की मस्ती में डूब गईं । उभरा तो सिर्फ प्रेम और सभी प्रेम की दुनिया में तिरोहित हो गए । कवि और श्रोता दोनों ही मस्ती के रंग में रँग गए । ‘प्रेम’ को सर्वस्व मानना सभी हालावादी कवियों का मूल सिद्धांत बनकर उभरा, इस धारा के अग्रणी हैं – डॉ. हरिवंश राय बच्चन ।

निःसंदेह डॉ. बच्चन की ‘मधुशाला’ तब तक अमर रहेगी जब तक लोग प्रेम और मस्ती के दीवाने बने रहेंगे । इसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होगा; जैसा कि स्वयं डॉ. बच्चन ने ही कहा है :
”कभी न कण भर खाली होगा लाख पियें, दो लाख पियें पाठक गण हैं पीने वाले पुस्तक मेरी मधुशाला !”
‘मधुशाला ‘ वास्तव में एक रहस्यमय गुफा है, जिसे पढ़ने पर उसमें तमाम द्वार स्वत: ही खुलते जाते हैं और हर द्वार पर एक नई मस्ती से भरी ‘मधुशाला’ का एहसास होता है ।

डॉ बच्चन की भाषा साहित्यिक होते हुए भी बोलचाल भाषा के अधिक निकट हैं। उनकी भाषा सरल और सरस है। उन्होंने लोकगीतों के मुक़्तक छन्दों की रचना की है। अपनी सरलता सरसता और खुलेपन के कारण ही उनके गीत बहुत पसंद किये जाते हैं।
पहली बार दिसंबर 1933 में रूबाइयाँ डॉ. बच्चन द्वारा झूम-झूमकर शिवाजी हॉल, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एक कवि सम्मेलन में सुनाई गईं थी, तब सभी श्रोता मदमस्त होकर झूम उठे थे। नवयुवक विद्यार्थी ही नहीं, बड़े-बूढ़े भी आह्वादित हो उठे थे।
डॉ. बच्चन के अंतरतम का भारतीय संस्कार है, जो उनके मधु काव्य में अज्ञात रूप से अभिव्यक्ति हुआ है जो जीवन सौंदर्य एवं शाश्वत प्राण चेतना-शक्ति का सजीव प्रतीक है। ‘मधुशाला’ ही नहीं डॉ. बच्चन की हर काव्य-रचना से एक गहरी दृष्टि, विशेष दृष्टिकोण प्राप्त होता है।
महाकवि डॉ बच्चन जी हिंदी कवियों में शायद अकेले ऐसे कवि थे, जिन्होंने बीती लगभग पूरी सदी को पूरा देखा, भोगा और जो भोगा, सो गाया। सिर्फ गाया ही नहीं, बल्कि अपने इर्दगिर्द मानवीय संबंधों की हर बुनावट को पढ़ा और चिट्ठियों-पत्रों की शक्ल में अपने पास तक आने वाली हर दस्तक को सुना। रचनाकार और पाठकों के बीच हुई चिट्ठी-पत्री से संवाद का ऐसा सेतु तैयार हुआ, जिससे डॉ. बच्चन जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की थाह ली जा सकती है। साहित्य से परे डॉ. बच्चन जी की चिट्ठियों का ऐसा संसार है, जिसमें समय और समाज के सापेक्ष बहुत कुछ कहा-सुना गया है। अनुमानतः लगभग एक लाख चिट्ठियां उन्होंने अपने चहेते प्रशंसकों को लिखीं, जो समय के साथ विशिष्ट साहित्यिक धरोहर बन गई हैं। कई रूपों में महाकवि डॉ. बच्चन जी के पत्र हिंदी साहित्य में अनूठी साबित होती है।राज्यसभा के मनोनीत सांसद होने के कारण डॉ. बच्चन जी के पास डाक से आए सभी पत्रों का जवाब देने के लिए ज्यादा समय नहीं होता था, इसलिए उन्होंने ‘धन्यवाद’ के लिए ‘ध.’ और ‘शुभकामनाएं’ के लिए ‘शु.का.’ और ‘पत्र के लिए धन्यवाद’ की जगह ‘प. के लिए ध.’ आदि लिखा करते थे, पर उत्तर हरेक पत्र का देते थे। डॉ. बच्चन जी के पत्रों में उनकी पारदर्शिता बिना लाग-लपेट के सामने आती है, इसलिए इनका आनंद किसी साक्षात्कार से कम नहीं है।
काली से काली रात का भी प्रभात होता है। समय चक्र जैसे सौभाग्य की, वैसे ही दुर्भाग्य की ज़मीन पर होता हुआ आगे निकल जाता है।
डॉ. हरिवंशराय बच्च्न की आत्मकथा का कैनवस भी बहुत व्यापक है। आत्मकथा आत्म की अभिव्यक्त की सर्वश्रेष्ठ विध है। डॉ. हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा हिंदी की सर्वाधिक सफल और महत्वपूर्ण आत्मकथा मानी जाती है। डॉ.बच्चन की आत्मकथा की शैली सहज-सरल शैली है। जिसे पढ़कर मन में जिज्ञासा का भाव जाग्रत होता है। आत्मकथा सृजन की प्रेरणा का काम करती है। उनकी शैली की सरल आत्म-संस्मरणात्मक स्वाभाविकता को सहज ही देखा जा सकता है। डॉ. बच्चन ने लगभग नदी के पानी सी बहती जिस अभिव्यक्ति शैली को अपनाया है वह उन्हें सहज ही नहीं मिल गया था। यह तो सर्वविदित है कि डॉ. बच्चन अंग्रेजी के विद्वान थे लेकिन उनकी भाषा पर अंग्रेजी साहित्य का थोड़ा-सा भी कभी प्रभाव दिखाई नहीं दिया। इसके विपरीत उनके गध में सरल शब्दों की सुंदर छटा के साथ देशज प्रयोग देखे जा सकते हैं। डॉ बच्चन की भाषा में परंपरा का सौष्ठव रहा है, वह साहित्यिक होते हुए भी बोलचाल के निकट रहे है। डॉ. बच्चन सहज, रसभीनी, भावभीनी, गतिद्रवित, प्रेरणास्पर्शी, अर्थकलिपत व्यथामथित रहे है।
डॉ. हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा हिंदी आत्मकथा साहित्य में मील का पत्थर कही जा सकती है। उनकी आत्मकथा का गध उस बहते हुए निर्मल जल के समान है जो निरंतर नवीन बना रह सकता है। ”हिंदी” गध का वह ठाठ दुर्लभ है – जैसे उनकी कविताओं में आम बोलचाल के शब्दों का लयात्मक उपयोग किया गया है, उसी तरह डॉ. बच्चन जी के गध में भी देशज की गीतात्मकता है। निःसंदेह अपनी आत्मकथा में सच लिखने वाला उनसे अधिक साहसी लेखक दूसरा नहीं हुआ।
डॉ. हरिवंश राय बच्चन की विशेषता ही कहें कि वह विलक्षण संवाद पुरुष थे। हर छोटे-बड़े के साथ उनका समान व्यवहार और जीवन को खुली किताब की तरह रखने की लालसा ने ही उन्हें जन-जन से जोड़ दिया।
हम कब अपनी बात छुपाते ?
हम अपना जीवन अंकित कर
फेंक चुके हैं राज – मार्ग पर ,

जिसके जी में आये पढ़ ले थमकर पल भर आते – जाते !

हम कब अपनी बात छुपाते ?

हम सब कुछ करके भी मानव ,

हमीं देवता , हम ही दानव ,

हमीं स्वर्ग की , हमीं नरक की क्षण भर में सीमा छू आते !

हम कब अपनी बात छुपाते ?

मानवता के विस्तृत उर हम ,

मानवता के स्वच्छ मुकुर हम ,

मानव क्यूँ अपनी मानवता बिम्बित हममें देख लजाते !
हम कब अपनी बात छुपाते ?
महाकवि बाबूजी डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी के बारे में उनके पुत्र व महानायक श्री अमिताभ बच्चन जी एक अपने एक साक्षात्कार में कहते है कि , पूज्य बाबूजी एक साधारण व्यक्ति थे, मनोबल बहुत था उनमें, एक आत्मशक्ति थी उनमें। खास तौर पर उनका आत्मबल …. जिसके कई उदाहरण हैं उनके। एक बार वो कोई चीज़ ठान लेते थे, फिर वो जब तक खत्म न हो जाए, तब तक उसे छोड़ते नहीं थे, दिन-रात उस काम में लगे रहते थे। जो उनकी स्टडी होती थी, उसके बाहर वो एक पेंटिंग लगा देते थे। उसका मतलब होता था कि अंदर कोई नहीं जा सकता, अभी व्यस्त हूँ बैठे-बैठे जब वो थक जाएं, तो खड़े होकर लिखें, जब खड़े-खड़े थक जाएं, तो ज़मीन पर बैठकर लिखें। विलायत में भी वो ऐसा ही करते थे, जब वो विलायत में अपनी पीएचडी कर रहे थे, तो उन्होंने अपने लिए एक खास मेज़ खुद ही बनाया। उनके पास इतना पैसा नहीं था कि मेज़ खरीद सकें। एक दिन वहां गए, तो अमिताभ बच्चन जी ने देखा कि एक कटोरी में गरम पानी है और उसमें उन्होंने अपना बायां हाथ डुबोया था। उन्होंने कहा कि क्या हो गया? तो उन्होंने बताया कि दर्द हो रहा था। अमिताभ बच्चन जी ने कहा कि कैसे हो गया? तो उन्होंने कहा कि लिखते-लिखते दर्द होने लगा। फिर अमिताभ बच्चन जी ने कहा कि ये तो आपका बायां हाथ है, आप तो दाहिने हाथ से लिखते हैं? उन्होंने कहा कि हां, सही कह रहे हो .. दाहिने हाथ से लिखते-लिखते मेरा हाथ थक गया था, लेकिन क्योंकि मुझे काम खत्म करना था और लिखना था, तो मैंने अपने आत्मबल से दाहिने हाथ के दर्द को बाएं हाथ में डाल दिया है और अब मेरा बायां हाथ दर्द कर रहा है, इसलिए मैं उसकी मसाज कर रहा हूँ। उनके ऐसे ही कई प्रेरणापूर्ण विचार थे।
डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी कहते हैं, अगर मैं दुनिया से किसी पुरस्कार का तलबदार होता तो मैं अपने आपको और अच्छी तरह से सजाता-बजाता, और अधिक ध्यान से रंग-चुनकर उसके सामने पेश करता। मैं चाहता हूँ लोग मुझे मेरे सरल, स्वाभाविक और साधारण स्वरुप में देख सके।
सहज, निष्प्रयास प्रस्तुत क्योंकि मुझे अपना ही तो चित्रण करना है। मैं अपने गुण-दोष जन-जीवन के सम्मुख रखने जा रहा हूँ पर ऐसी स्वाभाविक शैली में, जो लोक-शील से मर्यादित हो।
डॉ हरिवंश राय बच्चन जी कहते हैं – मेरा जीवन एक साधारण मनुष्य का जीवन है, और इसे मैंने अपना सबसे बड़ा सौभाग्य और अपने सबसे बड़ी प्रसन्ता का कारण माना है। मुझे फिर से इच्छानुसार जीवन जीने की क्षमता दे दी जाए तो मैं अपना जीवन जीने के अतिरिक्त किसी और का जीवन जीने की कामना न करूँगा – उसकी सब त्रुटियों-कमियों, भूलों, पछ्तावों के साथ। सबसे बड़ा कारण कि इसी के बल पर तो मैं दुनिया के साधारण जनों के साथ अपनी एकता का अनुभव करता हूँ।
डॉ हरिवंश राय बच्चन जी कहते हैं – यदि मैं कही समझी जाने योग्य इकाई हूँ तो मेरी कविता से मेरे जीवन और मेरे जीवन से मेरी कविता को समझना होगा। जैसे मेरी कविता आत्मकथा-संस्कारी है, वैसे ही मेरी आत्मकथा कविता-संस्कारी है।
कितना पानी मेरी सुधियों की सरिता में बह चूका है – निश्चय ही, उसके चेतन और अवचेतन तटों पर अपने बहुविधि प्रवाह की कितनी-कितनी निशानियां छोड़ते हुए – कहीं चटक, कहीं फीकी, कहीं चमकीली, कहीं धुंधली, कहीं साफ़-सुथरी कहीं धूमिल!
वही कृतियां कालजयी कहलाती है जो अपने लेखक और अपने युग के बीत जाने पर लंबे समय तक पाठकों द्वारा पढ़ी और सुधीजनो द्वारा सराही जाती है। हिंदी के महाकवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन की महाग्रंथ “मधुशाला” समेत अन्य अनमोल रचनाएं व उनकी आत्मकथा भी एक ऐसी रचना है जिसे संभवतः ‘गौरव ग्रंथ’ की संघ्या दी जा तो इसमें अतिश्योक्ति नहीं।

निःसंदेह हिंदी साहित्य के प्रति उनका अविस्मरणीय योगदान सभी को सदैव प्रेरणा देता रहेगा।

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