आज विश्व वैश्विक महामारी कोरोना से तड़प रहा है। समाज में अनिश्चितता का दौर है, हर क्षेत्र में क्षति पहुंची है। हमे यह याद रखना चाहिए की कोरोना वायरस कोई पहला वैश्विक महामारी नहीं है और संभवतः यह आखरी भी नहीं होगा। ऐसे वक़्त में हमारी दीर्घकालिक प्रतिक्रिया में एक-दूसरे के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और पृथ्वी के साथ हमारा संबंध शामिल होना चाहिए। वैश्विक सामुदाई को सामूहिक रूप से इस संकट का सामना करना होगा। ऐसे वक़्त में सयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व पर्यावण दिवस २०२० का विषय ‘प्रकृति के लिए समय’ तय किया है। हमने अमेज़न बेसिन में देखा है की जंगल काटने से मलेरिआ के मामलो में तेज़ी से वृद्धि आई। सार्स, इबोला और बर्ड फ्लू की वजह भी प्रकृति का दोहन ही था। जंगलो को चिर कर, प्राकृतिक संसाधनों को लूट कर हमने देशी प्रजातियो को आक्रामक बनाया है। हम सभी ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकृति के विनाश से समाज पर फैले कहर का अनुभव किया है। बड़े हिस्से में प्राकृतिक हैबिटैट के नुकसान के कारण, आज दस लाख पशु और पौधों की प्रजातियों को विलुप्त होने का खतरा है। एक प्रतिस्तिथ संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, मनुष्य ने पृथ्वी की भूमि को ७५ % और महासागरो को ६६ % को वास्तविक आकार से बदल दिया है। अन्य प्रजातियों के लिए अब सिर्फ पृथ्वी का एक चौथाई हिस्सा ही रहने लायक है। यह स्पष्ट है की हमे अगर पृथ्वी पर रहना है तो इसका शोषण बंद करना होगा। कोरांटीन के दिनों में इंटरनेट पर, व्हाट्सप्प पर ऐसे कई तस्वीर वायरल हुई जिसमे २०० किलोमीटर की दूरी से हिमालय का दिखना, सन फ्रंसिको के सड़को पर काइओट का घूमना इत्यादि। इन सब तस्वीरो को देख कर लगता है की प्रकृति अपने पुराने रूप में आने का प्रयास कर रही है या जंगली अपने लिए नया आशियाना की तलाश में भटक रहे है। ऐसा नहीं है की इस तरह की तस्वीर पहले नहीं आई है लेकिन हमारा ध्यान कोरांटीन के दिनों पर गया है। यहां ये भी सोचना होगा की कैसे भारत सरकार गंगा को साफ़ करने के लिए हज़ारो करोड़ रूपये खर्च कर देती है पर गंगा अपने आप को २ महीनो की देश बंदी में लगभग साफ़ कर लेती है। एक अत्यंत गंभीर चक्रवाती तूफान – अम्फान पश्चिम बंगाल में कुछ दिन पहले ही आया था। बंगाल के तटीय इलाके के पास में है सुंदरवन का क्षेत्र, यहां पर सदाबहार वृक्ष की संख्या हज़ारो हज़ार में है। सदाबहार वृक्ष चकत्रवती तूफान की गति को कम करने का काम प्राकृतिक बफर के रूप में करता है। क्युकी इन वृक्षों के साथ बहुत छेड़ छाड़ नहीं किया गया है यह इस तरह की आपदा से लड़ने में हमारी मदद करते है। हम जो खाद्य पदार्थ खाते हैं, जो हवा हम सांस लेते हैं, जो पानी हम पीते हैं और जो जलवायु हमारे ग्रह को रहने योग्य बनाती है वह सब प्रकृति से आती है। इस लिए प्रकृति की सुरक्षा और पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने के लिए सख्त से सख्त कदम उठाये जाने की आवश्यकता दिखाई देती है। जो देशी प्रजातिया लुप्त या लापता हो गई है उनको दुबारा से बाहल करने के तरफ सभी को ध्यान देना चाहिए। पर क्या आज विश्व एक हो कर इस संकट का सामना करने को तैयार है? अंशुल शरण (लेखक पर्यावरण क्षेत्र में काम करने वाली अग्रणी स्वयंसेवी संस्था युगांतर भारती की कार्यकारी अध्यक्ष है)