प्रो . चंद्रेश्वर खां
प्रबंध सलाहकार एवं प्रबंध प्रशिक्षक
मेरी शिक्षा, दीक्षा नेतरहाट विद्यालय में हुई है. नेतरहाट विद्यालय का उद्बोधन वाक्य है अप्त दीपो भव: ‘अत्र दीपा विश्रतिÓ अर्थात अपना दीपक स्वयं बनों. अत: भगवान बुद्ध में रूचि, उन्हें जानने की जिज्ञासा बचपन से है. पुन: अपने कार्य काल में मैं संपूर्ण गुणवत्ता प्रबंधन पर शोध कार्य, संपूर्ण गुणवत्ता प्रबंधन का क्रियान्वयन इस विषय पर लेखन, प्रशिक्षण, विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में इसका अध्यापन आदि से जुड़ा हुआ हूं और इस पर मेरा कार्य जारी है. 1980 के दशक में मैं गुणवत्ता चक्र का उद्गम, विकास और कल-कारखानों में गुणवत्ता, उत्पादकता, सुरक्षा, सामूहिक कार्य, आदि के उपयोग में जापान को इस विद्या एवं विवधा को इसकी जननी मानी जाती है. इसी क्रम में मैंने इसके गहराई में जाने, सीखने और समझने का अनवरत प्रयास प्रारंभ किया. अचानक एक खास आलेक में मैंने पढ़ा कि गुणवत्ता चक्र के जापानी जनक डा. कारू इशिकावा ने लिया है कि वास्तव में गुणवत्ता चक्र का बुनियादी दर्शन भगवान बुद्ध की एक शिक्षा है जो कहता है कि आदमी पर विश्वास किया जा सकता है. इस विचार ने मुझे झंकृत कर दिया और मैंने धम्मपद पढऩा प्रारंभ किया और इसमें मेरी गहन रूचि और बढ़ गई.
आज फिर से मानव जाति को पंचशील, आर्य सत्य, आर्य अष्टांगिक मार्ग को समझने जीने और इसके गहराई में जाने की आवश्यकता है. शिक्षा को यदि जीने का प्रयास नहीं किया गया तो उसके आनंद से हम वंचित हो जाते हैं. शिक्षा जीवन के लिए है जीवन से सीखा जा सकता है, भगवान बुद्ध ने जीवन भर यही किया. पंचशील में पहला शील है हम जीव हिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा करते हैं. दूसरा शील है हम चोरी नहीं करने की प्रतिज्ञा करते हैं, तीसरा शील है हम व्याभिचार नहीं करने की प्रतिज्ञा करते हैं, चौथा शील है हम झूठ नहीं बोलेंगे इसकी प्रतिज्ञा करते हैं, पांचवां शील है हम नशीली चीजों को नहीं लेंगे इसकी प्रतिज्ञा करते हैं.
यह पूरी दुनियां, पूरी मानवता कितनी विलक्षण सुंदर और शुद्ध हो जाएगी यदि हम मानव पंचशील यानि हिंसा, चोरी, व्याभिचार, झूठ और नशे से मुक्त हो जाएं. यदि मानव हो जाता है इन चीजों से मुक्त तो दुनियां तत्क्षण हो जाएगी उन्मुक्त.
आर्य सत्य की परिकल्पना और संकल्पना बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धांत हैं. इसे संस्कृत में ‘चटवारि आर्यसत्यानिÓ और पालि में चत्तरि अरिथसच्चानि कहते हैं. ये चार आर्य सत्य हैं-
1. दुख – संसार में दु:ख है.
2. समुदाय – दु:ख का कारण है.
3. निरोध – दु:ख का निवारण है.
4. मार्ग – दु:ख के निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग है.
मानवमात्र, प्राणीमात्र जीवन पर्यन्त दु:खों की कड़ी में, बंधन में पड़े रहते हैं. यह दु:ख एक आर्यसत्य है. संसार के विषयों के प्रति जो तृष्णा है वही ‘समुदायÓ आर्य सत्य है. तृष्णा को हटाना निरोध आर्य सत्य है और इस निरोध की प्राप्ति का मार्ग, मार्ग आर्य सत्य है.
ये मार्ग आष्टांगिक मार्ग है. अब हमारे अंदर शील हो तो मार्ग सुगम होता है और आगत का यह मार्ग हमें तथागत तक पहुंचाता है और उस जीवन का स्वागत होता है.
अष्टांगिक मार्ग का पहला अंग है. सम्यक दृष्टि यानी उचित दृष्टि, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि. इसमें जो खास समझने वाली बाता है वह है हमारे भले बुरे कर्म और कर्मफल.
अष्टांगिक मार्ग का दूसरा अंग है सम्यक संकल्प यानी उचित विचार. संकल्प हमें बुरे कर्मों से बचाता है और हमारे अंदर, दया, करूणा, परवाह की भावना को बढ़ाता है. आर्य अष्टांगिक मार्ग का तीसरा अंग है, ‘सम्यक वचनÓ सम्यक वचन का अर्थ है सत्य बोलना, निंदा, चुगली नहीं करना, सबके साथ प्रेम और नम्रता से बातचीत करना. आर्य अष्टांगिक मार्ग का चौथा अंग है सम्यक कर्मान्त यानी सत्कर्म. पांचवां अंग है सम्यक आजीविका उचित जीवन वृति, छठा अंग है सम्यक व्यायामं यानी सद् प्रयत्न, सातवां अंग है सम्यक स्मृति यानी सद् स्मृति, आठवां अंग है सम्यक समाधि यानी मन को उचित रूप से एकाग्र करना, ध्यान लगाना. भगवान बुद्ध की शिक्षा का सार है ‘सब प्रकार के बुरे कर्मों से दूर रहना, नहीं करना, पुण्यों का संचय करना और अपने चित्र को परिशुद्ध करना.