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जमशेदपुर, 28 जनवरी (रिपोर्टर): टाटा वर्कर्स यूनियन के चुनाव में जिस तरह से दावपेंच का खेल चल रहा है उससे यह लग रहा कि एक टीम अब यह दिखलाने लगे हैं कि यहां के हम सिकन्दर यानी अगला अध्यक्ष व महामंंत्री हम, मेरी टीम की अलावा विरोधियों की अब क्या चुनाव के बाद तो और खैर नहीं रहेगी.
टाटा वर्कर्स यूनियन के चुनाव में जब चुनाव पदाधिकारी का चुनाव होता है तो पक्ष व विपक्ष का यह प्रयास होता है कि भले की चुनाव कमेटी उनकी टीम का नहीं हो लेकिन आरओ उनकी टीम का हो. जिसे इसमें कामयाबी मिल जाती है उसका आगे का रास्ता आसान दिखने लगता है. वह तब से अपने को सिकन्दर समझने लगते हैं. चुनाव का समीकरण भी यही बताता है कि जिस टीम के चुनाव पदाधिकारी नहीं रहेंगे उनके उम्मीदवारों व समर्थकों पर पूरा दबाव रहता है. वहीं चुनाव का नजदीक आते ही अपने आका का ऊंचे पदों पर रहने के कारण उनके सिपहसालार अपने को ही सबसे बड़ा समझने लगते हैं. जो विपक्षी होते हैं उन्हें लाचार व बेवश समझाया जाना लगता है. पक्ष वाले अपने को सिकन्दर ही मान लेते हैं. भला ऐसा मानना भी उनका जायज होता है क्योंकि उनके साथ कहीं न कहीं बेहतर होना शुरू हो जाता है. माना जाता है अदृश्य शक्ति का भी उन्हें सहारा मिल जाता है जिससे उनका अपने को यहां के हम सिकन्दर कहने में कोई परहेज नहीं होता है. टाटा वर्कर्स यूनियन के चुनाव में भी कई उम्मीदवार निर्विरोध हो गए हैं. कुछ सही तरीके से तो कुछ पर्दे के पीछे अपने आकाओं के साये में हो गए हैं. वे लोग 31 जनवरी को चुनाव उनके बाद मतगणना, फिर चुनाव व मतगणना से पहले ही खुद को सिकन्दर मान लेते हैं. वास्तविकता जो भी हो वह यहां तक घूम-धूम कर कहने लगे हैं कि यहां के हम सिकन्दर हैं. हंस के साथ तो या रोकर दो, नहीं दिए तो पछताओगे. वह अपने को इतन