कामाख्या नारायण प्रसाद
सच ही कहा गया है – “व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम्” अर्थात् सम्पूर्ण जगत में जो भी ज्ञान है, वह सब व्यास का उच्छिष्ट ( जूठन) है। वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत में उपलब्ध वेद, ब्राह्मण, उपनिषद ,पुराण, रामायण, महाभारत, व्याकरण, ज्योतिष, छंद, काव्यशास्त्र, नाटक और उनमें वर्णित मानवजीवन के मूलभूत मूल्य, दर्शन, अज्ञानतारूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर गति करने का उदात्त मार्गदर्शन, उसके आचार और संस्कार, वैदिक एवं उसके परवर्ती काल में लोगों का पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन, न्याय और शासन की व्यवस्था, कला एवं सौंदर्य आदि का अगाध वाङ्गमय उसकी विराट व्यापकता को भी दर्शाता है।
विश्व-मानव-संस्कृति क्या है? धरती पर मानव के जन्म के साथ ही उसकी संस्कृति का भी उदय हुआ और मानव जीवन के विकास के अनुरूप ही इसकी धारा निरंतर आगे बढ़ती गई । संस्कृति का क्षेत्र बहुत व्यापक है। आचार-विचार, रहन-सहन, कला-कौशल, नृत्य-संगीत, धर्म, इतिहास और साहित्य आदि अनेक साधनों के समन्वय से संस्कृति का निर्माण हुआ है। यदि व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृति शब्द पर विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि सम् उपसर्ग पूर्वक संस्कृत भाषा के कृ-धातु से संस्कृति शब्द बनता है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर संस्कृति उस अर्थ का द्योतक है जो समस्त मानवता को विशेषता प्रदान करता है। मानव जीवन के जो संस्कार और परिष्कार हैं, जिनसे मानवता का निर्माण हुआ है वही संस्कृति के मूल उपादान हैं। संस्कृति का विकास दो रूपों में हुआ- आध्यात्मिक और आधिभौतिक। प्राकृतिक पदार्थों में मानवकृत परिवर्तनों से भौतिक संस्कृति का निर्माण हुआ और मानव की जिस क्रिया में उसके मन या स्वभाव का संस्कार होता है उसे संस्कृति का आध्यात्मिक पक्ष कहा जाता है। मानव ने अब तक जो भौतिक प्रगति की है, वही उसकी भौतिक संस्कृति का विकास है, वही उसकी सभ्यता है। मानव की आध्यात्मिक संस्कृति के अंतर्गत धर्म, नीति, कला और साहित्य का उल्लेख किया जा सकता है। संस्कृति के ये दोनों पक्ष परिस्थितियों और वातावरण के अनुरूप परंपरा से आगे बढ़ते रहे।
इस पृथ्वी पर मानव जाति और उसकी संस्कृति की प्रतिष्ठा करने वाली आदिम जाति कौन थी, इस संबंध में इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं, भाषा-वैज्ञानिकों और मानवविज्ञानवेत्ताओं ने अपने अपने दृष्टिकोण से अलग-अलग मान्यताएं स्थापित की हैं। फिर भी इस संबंध में चार मत मुख्य हैं। कुछ जर्मन विद्वान जर्मनी तथा रूस के बीच के भूभाग को, कुछ यूरोपियन विद्वान मध्य एशिया को, कुछ यूनानी विद्वान ईरान को और कुछ यूरोपियन एवं भारतीय विद्वान भारत को मानव जाति एवं मानव संस्कृति का मूल स्थान सिद्ध करते हैं।
यह निर्विवाद है कि प्राचीन काल से वैदिक संस्कृत आर्यों की भाषा रही है और उसमें उनकी समृद्ध संस्कृति का वर्णन है। सुप्रसिद्ध संस्कृतज्ञ जर्मन विद्वान मैक्स मूलर का प्रारंभ में मत था कि आर्यों का मूल निवास मध्य एशिया था परंतु बाद में उन्होंने अपने मंतव्य को परिवर्तित करके आर्यों का मूल भारत में ही स्वीकार किया। उन्होंने लिखा है – ” भारत-वसुंधरा मानव जाति की माता और हमारी सारी परंपराओं की उद्गम भूमि है” (इंडिया : व्हाट कैन इट टीच अस )।
ठीक ऐसे ही विचार प्रसिद्ध विद्वान एम लुइ जैकोलियट के हैं। उनका भी कहना है कि “भारत संसार का मूल स्थान है। इस सार्वजनीन माता ने अपनी संतान को नितांत पश्चिम में भेजकर हम लोगों को अपनी भाषा, अपने कानून, अपना चरित्र, अपना साहित्य और अपना धर्म प्रदान किया” (दि जर्नल ऑफ दि रॉयल एशियाटिक सोसायटी, वॉल्यूम 16)।
इस संबंध में क्रूजर साहब का मत भी ध्यान देने योग्य है। उनका कहना है कि “यदि पृथ्वी पर कोई ऐसा देश है जो मानव जाति का मूल स्थान या कम से कम मानव सभ्यता का लीला क्षेत्र हो सकता है और जिसकी प्रज्ञा, जो मनुष्य जाति का दूसरा जीवन है, प्राचीन विश्व के समस्त भागों में पहुंचायी गई है, तो वह देश नि:संदेह भारत ही है” ( दि आर्यावर्तिक होम एंड दि आर्यन क्रेडिल इन दि सप्त सिन्धुज )।
टेलर महोदय ने मनुष्य जाति की जन्मभूमि काश्मीर को स्वीकार किया है।उन्होंने बल देकर इस बात को कहा है कि “मनुष्य जाति का मूल स्थान वही भूखंड है जहां संस्कृत और जेंद भाषाएं बोली जाती थीं” ( ओरिजिन ऑफ आर्यन्स)। उनके अनुसार वेदों में वर्णित सप्तसिंधु वही था जिसको पारसियों के धर्म ग्रंथ अवेस्ता में सप्तहिंद कहा गया है। सप्तसिंधु की यह भूमि आर्यों को बहुत पसंद थी। वेदों में और विशेष रूप से ऋग्वेद में तथा अवेस्ता में उसकी महिमा का विस्तार से वर्णन है। ऋग्वेद और अवेस्ता में अनेक बातों की एकता से यह ध्वनित होता है कि इन दोनों के रचनाकर्ता लोगों का बहुत दिनों तक साथ ही नहीं रहा वरन उनका इतिहास भी एक था था।
पाश्चात्य विद्वानों एवं इतिहासकारों द्वारा मेसोपोटामिया, मिश्र एवं माया की सभ्यता एवं संस्कृति को प्राचीनतम माना जाता है। उनके अनुसार मेसोपोटामिया सभ्यता का काल 3300 ईस्वी पूर्व से 750 ईस्वी पूर्व माना जाता है। मिस्र की सभ्यता एवं संस्कृति का काल 3100 ईस्वी पूर्व के लगभग माना जाता है जबकि माया सभ्यता एवं संस्कृति का काल 2600 ईस्वी पूर्व से 250 ईस्वी पूर्व माना जाता है। उनके द्वारा सर्वाधिक प्राचीन साहित्य सुमेरियन साहित्य माना जाता है, जिसका काल विद्वानों ने 2150 ईस्वी पूर्व का माना है।
परंतु इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं की संस्कृत भाषा 6500 ईस्वी पूर्व से पहले बोली जाती थी। प्रारंभ में वैदिक संस्कृति श्रुति साहित्य एवं स्मृति साहित्य के रूप में सुरक्षित एवं संरक्षित होती रही। इस तरह वैदिक साहित्य को विश्व के प्राचीनतम साहित्य होने का गौरव प्राप्त है।
मैक्समूलर पहले विदेशी विद्वान थे जिन्होंने वेदों पर, विशेष रुप से, ऋग्वेद पर आजीवन कार्य किया। प्रारंभ में इन्होंने ऋग्वेद की प्राचीनतम ऋचाओं का काल 1200 – 1000 ईस्वी पूर्व निश्चित किया था (ऋग्वेद संगीता, वॉल्यूम 1)। परंतु उन्होंने बाद में फिजिकल रिलीजन नामक पुस्तक में स्वयं ही स्वीकार किया है कि वेदों के निर्माण की ठीक तिथि तिथि का पता लगाना कठिन ही नहीं, अति दुष्कर भी है। वेदों के संबंध में निश्चित रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि वे विश्व-साहित्य के आदि ग्रंथ हैं और संसार में ज्ञान का अभ्युदय वेद-ग्रंथों के अभ्युदय के साथ हुआ है।
इतिहासज्ञ और ज्योतिर्विद जर्मन विद्वान याकोबी ने कल्पसूत्रों में ग्रह-मंडल संबंधी संदर्भों का अनुशीलन करने के पश्चात वेदों का निर्माण काल आज से 6500 वर्ष पूर्व निर्धारित किया है।
भारतीय विद्वान लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने नक्षत्र गति के अध्ययन से स्थिर किया है कि ब्राह्मण ग्रंथों का निर्माण अब से लगभग 4500 वर्ष पूर्व संपन्न हो चुका था। लोकमान्य के मतानुसार आज से 6500 वर्ष पूर्व का समय मंत्र-संहिताओं का निर्माण काल था। मंत्र संहिताओं के निर्माण से पूर्व यदि 2000 वर्ष की अवधि को संपूर्ण वेद मंत्रों की रचना के लिए रखा जाए तब भी कुछ वैदिक मंत्रों का निर्माण आज से 8500 वर्ष पूर्व अवश्य हो चुका था ( आर्कटिक होम इन दि वेदाज)।
महर्षि पाणिनि ( 500 ईस्वी पूर्व ) की अष्टाध्यायी के अनेक स्थलों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उनमें उपनिषदों को ग्रंथरूप में उद्धृत किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि 500 ईस्वी से पूर्व ही उपनिषदों पर व्याख्यान-ग्रंथों का निर्माण होने लग गया था।
प्राच्यविद्या-प्रेमी विद्वान लुडविग ने वर्षों तक उपनिषदों का अनुशीलन किया। उनकी खोज है कि उपनिषदों में जिस ज्ञान को संकलित किया गया है उसकी प्राचीनता आज से लगभग तीन चार हजार वर्ष पहले है। उनकी धारणा है कि ज्ञान के क्षेत्र में उपनिषदों के अद्वैत-भाव को विश्व के समस्त विचारकों ने उधार लिया है।
विश्व संस्कृति के इतिहास का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि उसमें जो निरंतर नए परिवर्तन होते गये और नई मान्यताएं स्थापित होती गयीं, उनके मूल में बहुत कुछ अंशों में वैदिक संस्कृति के प्रेरणादायी तत्व ही सन्निहित रहे हैं। मानव संस्कृति की परंपरागत महान विरासत का अध्ययन करते हुए हमें यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि उसकी अंतश्चेतना को प्रभावित एवं प्रेरित करने में वैदिक संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है तथा वैदिक संस्कृति की विश्व संस्कृति पर अमिट छाप है।
लगभग 500 ईस्वी पूर्व महावीर और बुद्ध जैसे धार्मिक नेताओं ने नई समाज-पद्धति के आधार पर नए सांस्कृतिक मूल्यों को जन्म दिया। किंतु उन्होंने भी वैदिक संस्कृति की सर्वथा सर्वथा उपेक्षा नहीं की। वैदिक परंपरा द्वारा नैतिकता, सदाचार और सद्भावना की जिन बातों जिन बातों को समाज अपना चुका था, महावीर और बुद्ध ने उनको उसी रूप में में उसी रूप में में ग्रहण किया। सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, लोक-सेवा के व्रत को अपनाकर उन्होंने मूलभूत जीवन मूल्यों का उपदेश दिया। सुविदित है कि एक समय में बुद्ध का धर्म विश्व का धर्म बन गया था। उपनिषदों के तत्त्व- चिंतन को आधार मानकर लोकायत, सांख्य, न्याय, योग और वेदांत जैसे दर्शन-संप्रदायों का उदय हुआ। ये सभी संप्रदाय उस व्यापक एवं विशाल मानव-संस्कृति के अंग हैं जिन्होंने सांस्कृतिक उत्थान में अपना अविस्मरणीय योग दिया।
दूसरे देशों और विभिन्न धर्मानुयायियों ने उपनिषदों के प्रति जो गहन आस्था प्रकट की उसका भी विश्व-मानव-संस्कृति पर गहरा प्रभाव हुआ। मध्यकालीन इतिहास में अकबर के धर्मनिरपेक्षता और उसका विद्या प्रेम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। शाहजहां के पुत्र दारा शिकोह के उपनिषद प्रेम की जितनी भी प्रशंसा की जाय, कम है। दारा शिकोह ने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कार्य 1640 ईस्वी में प्रारम्भ कराया जो 1656 ईस्वी में पूर्ण हुआ। दारा ने उस महाग्रंथ का स्वयं संपादन किया और उसका नाम रखा “सिर्रे अकबर”अर्थात महा रहस्य। इस महाग्रंथ में 50 उपनिषदों का अनुवाद संकलित है। सूफी फकीर उपनिषदों के इस फारसी अनुवाद से अत्यधिक प्रभावित हुए। उससे सूफियों की अद्वैत भावना को बड़ा बल मिला।
1775 ईस्वी में अयोध्या के नवाब शुजाउदौला के फारसी रेजिडेंट श्री एम गेंतिल ने प्रसिद्ध फ्रेंच पर्यटक एकेन्टील डुपेरन के लिए दारा शिकोह द्वारा संपादित फारसी अनुवाद की एक प्रति भेजी। डुपेरन ने 1801- 02 ईस्वी में उसका लैटिन अनुवाद ” औपनेखत” के नाम से प्रकाशित कराया।
शॉपेनहार ने डुपेरन के उक्त लैटिन अनुवाद जो कि अनेक अर्थों में एकांगी एवं अपूर्ण था, का अध्ययन करने के पश्चात् गदगद होकर कहा कि “उपनिषद-ज्ञान विश्व की विचारधारा के पथ-प्रदर्शन के लिए एक ज्योति है। न केवल जीवन में मुझे उपनिषदों के अध्ययन से शांति प्राप्त हुई, अपितु मृत्यु के उपरांत भी मुझे वे शांति प्रदान करेंगे।” शॉपेनहार ने आगे कहा है कि “जीवन को उन्नत बनाने वाले ज्ञानपुंजरूपी उपनिषदों की तुलना में समग्र विश्व में दूसरा कोई साहित्य नहीं है। डुपेरन के अनुवाद के संबंध में उन्होंने कहा है कि “वह जीवन और समस्त मानवता को ऊंचा उठाने वाली पुस्तक है।” लुडविग महोदय का भी कहना है कि “विश्व की दार्शनिक विचारधारा में जो अद्वैतवाद के दर्शन होते हैं उन पर उपनिषदों का अत्यधिक प्रभाव है। इसी प्रकार विंटरनित्स ने यह स्वीकार किया है कि 19वीं शती में संसार को उपनिषद् -ज्ञान का सबसे बड़ा वरदान प्राप्त हुआ।
इसी प्रकार उपनिषदों का अध्ययन करने के पश्चात् प्रसिद्ध इतिहासकार एवं संस्कृतज्ञ विद्वान मैकडॉनल का कथन है कि “मानवीय चिंतन के क्षेत्र में सर्वप्रथम बृहदारण्यक उपनिषद् में ही ब्रह्मतत्त्व की यथार्थ व्यंजना हुई है।” उपनिषद् -विद्या के समक्ष विश्व दर्शन के तत्त्व-ज्ञान की तुलना करते हुए जर्मन विद्वान एफ श्लेगल का अभिमत है कि ” पूर्वीय आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाश-पुंज की तुलना में यूरोपवासियों का उच्चतम तत्त्व-ज्ञान ऐसे ही लगता है जैसे मध्याह्न के सूर्य के व्योमव्यापी प्रताप की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती हुई अनल शिखा की एक किरण हो, जिसकी अस्थिर और निस्तेज ज्योति मानो बुझने वाली है।”
भारतीय आचार-विचार और संस्कृत साहित्य के प्रति अगाध निष्ठा रखने वाली विदुषी महिला डॉक्टर एनी बेसेंट ने उपनिषद विद्या की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि भारत का यह ज्ञान विश्व-मानव-चेतना को सर्वोच्च देन है।
आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन से यह स्पष्ट किया है कि विश्व की सैकड़ों भाषाएं और बोलियां, जैसे – अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, हिंदी, उर्दू, पुर्तगाली, स्पेनिश, डच, फारसी, रूसी, बांग्ला, पंजाबी, अल्बेनियन, बाल्टिक स्लाविक, केल्टिक, हेल्लेनिक, ईरानियन, इटालिक आदि भारोपीय भाषा परिवार की हैं जो मूलत: संस्कृत से मिलती-जुलती भाषा से निकली हैं। इनकी संस्कृतियों में संस्कृत का बहुत प्रभाव है। 16 वीं शताब्दी में यूरोप एवं दक्षिण मध्य तथा दक्षिण पश्चिमी एशिया में इस भाषा परिवार का प्रचलन था और वर्तमान में तो इसका प्रभाव विश्वव्यापी है।
इस प्रकार इतिहासकारों, पश्चिमी संस्कृतज्ञों, भाषा वैज्ञानिकों एवं अन्य विद्वानों ने संस्कृत के प्रति अपने हार्दिक उद्गार प्रकट कर विश्व को उनके महत्व का दिग्दर्शन कराया है। यही कारण है कि विश्व का प्रत्येक विचारक आज भगवद्गीता एवं उपनिषदों को विशाल मानव अंतश्चेतना की श्रेष्ठतम उपलब्धि मानता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विचार और चिंतन के बौद्धिक क्षेत्र में विश्व साहित्य एवं मानव संस्कृति में अब तक जितनी प्रगति हुई , संस्कृत साहित्य का उनमें प्रमुख स्थान है। उपनिषद् और भगवद्गीता न केवल भारत के, अपितु समस्त मानव मस्तिष्क की चरम परिणति के परिचायक हैं। विश्व के प्रत्येक क्षेत्र और अतीत के सभी युगों में उनको अपनाया गया तथा विश्व के आधुनिक विचारकों ने उनका गंभीर अध्ययन किया और उन्हें विश्व की चिंतन धारा के मूल स्रोत तथा सर्वोच्च उद्गार स्वीकार किया है।
इन्हीं कारणों से पाश्चात्य संस्कृतज्ञ मैक्समूलर ने गाया है —
न जाने विद्यते किं तद् माधुर्यमत्र संस्कृते
सर्वदैव समुन्मत्ता येन वैदेशिका: वयम्।
जयतु संस्कृतम्।