चाकुलिया/
झारखंड में दिवाली के बाद सोहराई मनाई जाती है वहीं कुर्मी समाज में दीपावली को सोहराई के रूप में मनाया जाता है. इसे बांधना पर्व भी कहते हैं. बांधना पर्व एक-दूसरे से मिलने का अवसर प्रदान करता है. साथ ही मवेशियों के प्रति कृषकों के आदर का भी सूचक है. मवेशियों को कार्य से मुक्ति देकर खूब खिला-पिलाकर तथा विभिन्न प्रकार से सजाकर उनकी पूजा की जाती है. गोबर तथा मिट्टी से लिपे-पुते घर सजे-संवरे द्वार और रंगीन नवीन परिधान व्याकुलता के साथ इस पर्व की प्रतीक्षा करते हैं. पर्व के आगमन के साथ ही दरवाजों पर बने फूल-पत्तियों के नमूने झूम उठते हैं और सभी खुशी में सराबोर होकर मस्त हो उठते है. यह पर्व मुख्य रूप से मवेशियों के लिए मनाया जाता है. तीन दिनों के त्योहार में मवेशियों की पूजा होती है. उन्हें सजाया जाता है. खाने के लिए हरी-हरी घास दी जाती है. कृषक समाज में मवेशियों का कितना महत्व है इसका अंदाजा इस विवाह गीत से लगाया जा सकता है. जुहा खेले गेले बाबा, पासा खेले गेले हो.. काहे बाबा मौके हारोअले, गाइ बरद भंइसी बाबा.. काहे नि हारोअले.. गाइ बरद भंइसी बेटि, घोर केर लक्ष्मी.. तहें बेटी पराधिन गो… दीपावली के दूसरे दिन कृषक कृषि में संबंधित सभी औजारों को धोकर साफ करते हैं. दीप-धूप एवं नए चावलों को पीसकर (गुंड़ी) उसके घोल से उनकी पूजा की जाती है. दोपहर बाद पीठा, दीया, अरवा चावल आदि से गौशाला की पूजा की जाती है. गौशाला पूजा के बाद घर की मालकिन द्वारा गाय-भैसों की पूजा परंपरा अनुसार पूजा करती है. गौशाला पूजा के बाद आंगन में लक्ष्मीजी की पूजा होती है. सोहराई के दिन कांचा दीया कहलाता है. इस दिन मवेशियों को नहला-धुलाके घर घुसाया जाता है. शाम को पत्तों में गुंड़ी (चावल का आटा) का दीया बनाया जाता है और अपने मवेशियों को दिखाया जाता है. मवेशियों के स्वागत के लिए महिलाएं अरवा चावल के घोल से घर के आंगन में अल्पना बनाती हैं.