देवेन्द्र
पत्रकार और साहित्यकार की भूमिका शाश्वत विपक्ष की होती है. खासकर वैसे समय में यह दायित्व और बढ़ जाता है जब सदन में निर्वाचित विपक्ष की संख्या कम होती है. चूंकि भारत लोकशाही का उद्गम स्थल रहा है. वैशाली का तो उल्लेख बार-बार आता ही है, उससे पहले हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत के राजकाज की शैली का उल्लेख आता है. कण्व आश्रम में शकुंतला गर्भवती थीं और उनका पति दुष्यंत उन्हें भूल चुका था. वह राजा से मिलना चाहती थीं अपनी फरियाद लेकर क्योंकि उनकी राजमुद्रिका गुम हो चुकी थी. कोई रास्ता उन्हें नहीं मिल रहा था. तभी आश्रम की परिचारिका ने उन्हें बताया था कि दुष्यंत के राजद्वार पर एक घंटिका टंगी है. तुम आधी रात में भी जाकर घंटी बजाकर अपनी फरियाद रख सकती हो. अर्थात राजतंत्र में भी राजा अपनी प्रजा के लिए 24 घंटे उपलब्ध होता था. अब तो विधायकों से मिलने के लिए भी जरिया तलाशना पड़ता है. लेकिन तब सीधे-सीधे राजा से भी मिलकर अपनी बात रखी जा सकती थी. तो वह राजतंत्र की बात थी, अभी तो छेहा प्रजातंत्र है लेकिन मुश्किलात बढ़े हैं. आम आदमी परेशान है और सत्ता आभासी राजतंत्र की ओर चल पड़ी है. यहां अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से मिलना भी दुष्कर हुआ जा रहा है. ऐसे में अखबारों और पत्रकारों की भूमिका बढ़ जाती है. खासकर छोटे और मझोले अखबारों की. बड़े अखबार दिल्ली से चलकर गांवों तक पहुंच तो रहे हैं लेकिन बड़ी भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं. लेकिन छोटे और मझोले अखबार इस काम को बखूबी कर रहे हैं.
भारतीय पत्रकारिता आज संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है. कुछ अखबार और चैनल विज्ञापनों के लोभ में सरकार का भोंपू बने दिखाई पड़ रहे हैं. वे जनआंदोलनों पर घटिया आरोप लगा रहे हैं. जो बात सरकार भी कहने से हिचकती है, वह बात पत्रकार लिख रहे हैं, बोल रहे हैं. इसलिए कहीं-कहीं इनका बहिष्कार भी हो रहा है. इनके खिलाफ पोस्टरबाजी हो रही है. दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन कर रहे किसानों के धरना स्थल पर जाने के लिए कुछ चैनल के रिपोर्टरों को अपनी टैग लाइन हटाकर बातचीत करनी पड़ी क्योंकि उस चैनल पर उनके एंकर आंदोलन को ही गलत ठहरा रहे थे. उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी और माओवादी बता रहे थे. बताइए, ये कहां आ गए हम. कहां हमें जनता की आवाज बननी चाहिए और कहां हम में से कुछ लोग सत्ता की आवाज बन रहे हैं. जन आंदोलनों को झुठलाने का प्रयास नहीं होना चाहिए. जनता को सत्ता से सवाल करने दीजिए. हो सके तो आप जरिया बनिए लेकिन उनका रास्ता बंद मत करिए.
कहा जाता है कि आजादी की जंग में भी मुख्यधारा के अधिकतर अखबार स्वतंत्रता सेनानियों के साथ नहीं थे. दावा तो किया जाता था दीये के साथ होने का लेकिन वे चलते हवा के साथ थे. आज भी कमोबेश वही हालात हैं. पाठकों को भी मालूम है कि कौन अखबार किस धारा के साथ चलता है. उस दौर में छोटे-मझोले अखबार और झोला साहित्य ही घर-घर जाकर आंदोलन की अलख जगाते थे. उनके संपादक भूमिगत रहकर भी अपने अखबारों के जरिये जनता को जागरूक करते थे. साधनहीनता तो तब भी थी लेकिन पत्रकारिता ईमान के साथ होती थी. साधनहीनता आज भी छोटे अखबारों के पन्ने पर झलकती है लेकिन नियमित निकल रहे हैं, यह आज के समय की बड़ी उपलब्धि है.
अभी बीते दस महीनों में देखा कि तथाकथित कुछ बड़े अखबारों ने बीच कोरोना काल में अपने सैकड़ों कर्मचारियों को निकाल बाहर किया. लेकिन छोटे अखबारों ने अपने सहयोगियों को मंझधार में साथ नहीं छोड़ा. जो भी पत्रम्-पुष्पम् देते हैं, भले आगे-पीछे दिए लेकिन दिए जरूर. सिर्फ ब्रांड नेम बड़ा होने से कोई संस्था बड़ी नहीं होती, काम से बड़ी होती है. हैंडसम इज दैट हैंडसम ड•ा…भले मार्केट कैप किसी कंपनी की सबसे बड़ी होगी लेकिन वर्कर्स फ्रेंडली आर्गनाइजेशन का खिताब बीते चार सालों से टाटा स्टील को ही मिल रहा है. यह इसलिए कि यह अपने कर्मचारियों का तो खयाल रखती ही है, समाज के हर वर्ग का खयाल रखती है.
अंग्रेज के खिलाफ अंग्रेज पत्रकार
आजादी के आंदोलन के द ौर में भी कुछ ऐसे अख़बार निकल रहे थे जिनका काम अंग्रेजों की भारत विरोधी नीतियों का सपोर्ट और जस्टिफिकेशन करना था. लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उस दौर में भी भारतीयों की बात तो छोडि़ए, कुछ अंग्रेज ऐसे पत्रकार थे जो अंग्रेजों की नीतियों का विरोध कर रहे थे. उन्हीं में था
भारत का एक पहला प्रिंटेड समाचार पत्र जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी ने शुरू किया था. जेम्स ऑगस्टस हिक्की मूलत: आयरलैंड के थे और ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम करे थे. उन्होंने ई. सन 1780 में भारत के पहले प्रिंटेड समाचार पत्र ‘बंगाल गेजेट’ निकाला. उन्हें क्रिस्टियन मिशनरी द्वारा टाइप-राइटर की अनुमति मिली थी. उनका अख़बार अंग्रेजी भाषा में छपता था जिसमें कुल 12 पन्ने थे. ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी होते हुए भी वे भारत के पहले पत्रकार थे जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया. उन्होंने तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स के अनैतिक संबंधों और उसके द्वारा भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों
की कटु आलोचना अपने समाचार पत्र में की थी, जिसके कारण उन्हें जेल भेज दिया गया था. कुछ समय बाद अच्छे आचरण के कारण उन्हें जेल से छोड़ दिया गया मगर फिर भी उन्होंने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लगातार लिखना जारी रखा जिसके कारण उनका टाइप-राइटर छीन लिया गया. साथ ही उन्हें भारत से बहार भेज दिया गया. वारेन हेस्टिंग्स की तानाशाही ने भले ही उस अखबार को बंद करवा दिया लेकिन उस अख़बार के असर की जो गूंज भारत में सुनाई देना शुरू हुई थी, इसको सबसे पहले कानपुर के साहित्यकार पंडित जुगल किशोर सुकुल सुनी. उन्होंने अपने जीवन की सम्पूर्ण जमापूंजी को इक_ा कर बड़ी चालाकी से अंग्रेजों से ही उनकी प्रिटिंग मशीन खरीदी. शायद अंग्रेजी हुकूमत को इस बात की भनक भी नहीं होगी कि वे पंडितजी को प्रिंटिंग मशीन देकर खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं.
अंग्रेजों की नीतियों के बारे में सीधा-सीधा लिखने के कारण जो हश्र ‘बंगाल गेजेट’ का हुआ था, उससे सबक लेते हुए पंडित जुगल किशोर ने अपने अख़बार के लिए ब्रज और खड़ीबोली को चुना जो अंग्रेजों को एकदम से पल्ले नहीं पडऩे वाली थी. उन्होंने अपने अख़बार का नाम ‘उदंत मार्तण्ड’ संस्कृत से लिया जिसका अर्थ होता है ‘समाचार सूर्य’.चूँकि ‘उदंत मार्तण्ड’ में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ व्यंग और खड़ीबोली की भाषा में लिखा जा रहा था. इसलिए अंग्रेजों को पहले तो पंडितजी के मंसूबों की भनक तक नहीं लगी लेकिन कुछ समय बाद जब उन्होंने पाया कि जनता में जो क्रांति की भावना पैदा हो रही है इसके पीछे इस अख़बार का भी हाथ हो सकता है. तब उन्होंने अखबार की डाक ड्यूटी बढ़ा दी. जिसका सीधा असर पंडितजी की आर्थिक स्थिति पर पड़ा और इस तरह भारत का पहला हिंदी अख़बार बंद हो गया. कहने को तो हम आजाद हैं लेकिन आज भी विज्ञापन रोकर और सरकारी बंदिशें लगाकर अखबार को बंद करने की चालें चली जाती हैं. ये अलग बात है कि जनसहयोग से प्रकाशन बंद नहीं होता लेकिन मानस अभी बदला नहीं है. इसे बदलने का काम जनता के सहयोग से छोटे अखबार कर सकते हैं. लेकिन इन्हें जनसरोकारी होना पड़ेगा. जनता की आवाज बननी पड़ेगी. सत्ता से निरंतर सवाल करने पड़ेंगे.