तो क्या मीडिया का ध्यान खींचने किसान नेता बंगाल पहुंचे

किसान आंदोलन ने अब बंगाल की राह पकड़ ली है। किसान आंदोलन के नेताओं को शायद यह लगने लगा है कि मीडिया का सारा ध्यान अभी बंगाल चुनावपर केंद्रित है। कोई उनकी ओर झांक नहीं रहा सो वे भी मीडिया का ध्यान आकृष्ट करने के लिये बंगाल पहुंच गये हैं। विधान सभा के चुनावपांच राज्यों में हो रहे हैं लेकिन पूरी मीडिया बंगाल पर फोकस किये हुए है सो किसान नेता भी बोरिया बिस्तर लेकर बंगाल पहुंच गये हैं। उनका कहना है कि उनका आंदोलन गैर राजनीतिक है लेकिन वे भाजपा को हराने के लिये यहां आये हैं।
तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ संयुक्त किसान मोर्चा तले कई किसान संगठन दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर पिछले कई महीनों से आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन को पूरी तरह गैरराजनीतिक बताने वाले किसान नेताओं को अब खुलकर और बेहिचक पॉलिटिक्स से गुरेज नहीं है। चुनावी राज्य पश्चिम बंगाल अब संयुक्त किसान मोर्चा के तमाम नेताओं का नया ठिकाना है। मकसद है बीजेपी को हराना। शुक्रवार को संयुक्त किसान मोर्चा ने कोलकाता में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ऐलान किया कि बंगाल में बीजेपी हारी तो उसका घमंड टूटेगा।
संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने शुक्रवार को कोलकाता के प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस किया। इस दौरान किसान नेताओं ने जोर देकर कहा कि उनका आंदोलन गैरराजनीतिक है, मोर्चा किसी दल को समर्थन नहीं देगा लेकिन बीजेपी को हराएगा। बीजेपी हारी तो उसका घमंड टूटेगा। एक खास पार्टी के खिलाफ ‘गैरराजनीतिक आंदोलन’ के बचाव में किसान नेताओं का कहना है कि उनकी लड़ाई कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए है। बीजेपी की अगुआई वाली सरकार ने ये कानून बनाए हैं, इसलिए उसका देश में हर जगह विरोध करेंगे। वैसे चुनाव तो 5 राज्यों में हैं लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा का सबसे ज्यादा फोकस बंगाल पर है।
पश्चिम बंगाल में इस बार का विधानसभा चुनाव ‘ममता बनाम मोदी’ का रूप लेता जा रहा है। यह टीएमसी और बीजेपी के बीच ‘नाक की लड़ाई’ में तब्दील होती जा रही है। यही वजह है कि संयुक्त किसान मोर्चा भी बीजेपी को हराने के लिए यहां पूरी ताकत झोंकने में लगा है। आजकल किसान नेताओं का नया पता पश्चिम बंगाल है। बलबीर सिंह राजेवाल, गुरनाम सिंह चढ़ूनी, योगेंद्र यादव जैसे नेता बंगाल पहुंच चुके हैं। आंदोलन के चेहरे के तौर पर उभरे राकेश टिकैत शनिवार को पहुंचने वाले हैं। कोलकाता, नंदीग्राम, सिंगूर, आसनसोल जैसी तमाम जगहों पर किसान महापंचायत का सिलसिला शुरू होने वाला है। फिर बंगाल में पहले चरण की वोटिंग से ठीक एक दिन पहले 26 मार्च को ‘भारत बंद’ तो है ही।
मजबूरी, रणनीति या राजनीति?
आखिर ऐसा क्या हुआ जो किसान आंदोलन को राजनीति से दूर बताते आए यूनियन नेता खुलकर पॉलिटिक्स करने लगे हैं? यह उनकी मजबूरी है, रणनीति है या फिर विशुद्ध राजनीति, इसे समझना जरुरी है।
दिल्ली की सीमाओं पर जब नवंबर के आखिर में आंदोलन शुरू हुआ तो शुरुआत में मीडिया का खूब जमावड़ा होता था। किसानों का हुजूम भी बढ़ रहा था। लेकिन अब धरनास्थलों पर न किसानों का पहले जैसा हुजूम है और न ही मीडिया में पहले जैसी चर्चा। इस समय मीडिया, सोशल मीडिया की चर्चाओं के केंद्र में चुनावी राज्य हैं और उनमें भी खासकर पश्चिम बंगाल है। ऐसे में वहां सक्रियता दिखाने से किसान नेता चर्चा में बने रहने में जरूर कामयाब हो सकते हैं यानी एक हद तक यह उनकी मजबूरी है।
किसान नेताओं के ‘मिशन बंगाल’ का एक बड़ा मकसद यह दिखाना भी है कि उनका आंदोलन महज कुछ राज्यों तक सीमित नहीं है। इस लिहाज से यह रणनीति का हिस्सा भी है। चुनावी राज्यों में महापंचायतों के जरिए संयुक्त किसान मोर्चा यह साबित करने की कोशिश में है कि किसान आंदोलन सिर्फ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे देश के किसानों की लड़ाई है और इसमें जीत के लिए जरूरी है बीजेपी की हार। यहां बड़ा सवाल यही है कि किसान नेता क्या मीडिया का ध्यान खींचने के लिये ही आंदोलन कर रहे हैं? वे उसी राज्य में पहुंच रहे हैं जहां मीडिया का जमावड़ा है।

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