गणतंत्र की कसौटी पर नागरिक और सियासी दलों की भूमिका

अमरप्रीत सिंह काले
पूर्व प्रदेश प्रवक्ता, भाजपा
झारखंड प्रदेश
अंग्रेजों की राज से स्वतंत्रता भले ही हमे 1947 में मिल गयी थी पर सही मायने में तो स्वतंत्रता हमे 1950 में गणतंत्र दिवस को ही मिली, जिसने संविधान को सर्वोपरि मानते हुए हमें गणतंत्र बनाया. अब्राहम लिंकन ने गणतंत्र अथवा प्रजातंत्र को जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन माना है.वहीं अरस्तु ने प्रजातंत्र को मूर्खों का शासन माना है. आज गणतंत्र के 72 साल के बाद हम इन्ही दो बिंदुओं के बीच कहीं झूल रहे हैं. अक्सर हम देखते हैं कि वोट के अवसर पर नागरिक भगवान हो जाते हैं, वहीं वोट पाने के बाद सियासी दल भाग्यविधाता की भूमिका में आ जाते हैं. कहते हैं कि अति सर्वत्र वर्जयेत, पर ये अतिवाद हम दोनों स्थितियों में देखते हैं. सियासी दल भी नागरिकों से ही बनते हैं ऐसे में सियासी दलों के चरित्र भी नागरिकों के चरित्र को ही प्रतिबिम्बित करते हैं.
हमने एक लंबा सफर तय किया है पर अभी काफी लंबा रास्ता बाकी है क्योंकि प्रजातंत्र में नागरिक की सबसे बड़ी शक्ति उसका वोट ही है. ऐसे में जिस दिन नागरिक जाति धर्म और व्यक्तिगत स्वार्थ, पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर वोट करने लगेंगे उसी दिन सही मायनों में गणतंत्र आएगा. सियासी दल सोचते हैं कि उनका काम सियासत है पर जिस दिन वो सियासत के उद्देश्य के बारे में सोचें वहीं नागरिक अपने अधिकारों को तवज्जो देते हैं पर कर्तव्य याद रखना भूल जाते हैं. जिस दिन हर सियासतदान सोच ले कि वो सियासतदां से पहले एक नागरिक है. वहीं हर नागरिक ये सोच ले कि इस देश और समाज के प्रति अधिकार है और वो खुद एक नेता है और उसपर दायित्व है हर उस बेकस, बेबस के नेतृत्व का उस दिन स्थितियां बदल जायेगी.
आज बचपन मे सुनी एक गीत की पंक्तियां बरबस ही याद आ रही है.
इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चलके,
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्ही हो कल के.

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