भारत में विविध भाषा, संस्कृति, कला आदि का अनमोल धरोहर है जो काफी कम देशों में ऐसे विविधता देखा जाता है। यहां जितने भाषाएँ है उतना ही कला-संस्कृति है और सभी स्वयं में अहम है। जिसमें गीत व नृत्य आदिकाल से लोगों के मनोरंजन के साधन के साथ कलाकारों का अर्थोपार्जन का एक माध्यम भी है। गीत व नृत्य मनुष्य के मन-मष्तिष्क को खुशी प्रदान करता है। युग-युग से मानव समाज के क्रमागत विकास के साथ ही मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के गीत व नृत्य प्रचलित है। गीत, संगीत व नृत्य अर्थोपार्जन का एक माध्यम भी है। बंगला झुमुर गीत व नृत्य भारत के चार राज्य झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा व असम के काफी लोकप्रिय लोककला है। कोरोना महामारी के प्रकोप से पूर्व इस कला से हजारों कलाकारों को आर्थिक सहायता मिलती थी। लेकिन कोरोना महामारी के भवंर में मनोरंजन व कलाकारों का आर्थिक रोजगार डूबने लगा है।
पहले मेला, पर्व – त्योहारों के विभिन्न रंगमंच में ”तोर नाके दिबो नाकेर लुलुक काने दिबो पासा सजनी गो जास ना भूले आमार भालोबासा”, ”अंगे आसेछे फागुन मने आमार जले आगुन परान बंधु आछो हे कोथाय आगुणी हबो आमि तोमारई छुआई मन पुड़े यौवन जालाई तोमार बंधु देखा ना पाय बुके आमाय राखो हे जड़ाई”, डुंगरी का धारे धारे पुटुस झुड़ेर बन तुमि आमाके देखे हांसे छिले आमि छोटोई जे तखन आमि छोटोई जे तखन तुमि राग करेछो धन बुझे आमि पायेछि एखन”, आदि कर्णप्रिय बंगला झुमुर गीत के साथ अन्य भाषाओं के गीतों से श्रोता व दर्शकों का मनोरंजन होता था।
सरायकेला खरसावां जिला के उदलखाम गांव निवासी झुमुर सम्राट संतोष महतो कहते हैं कि गीत-संगीत मनोरंजन के साथ कलाकारों के लिए आर्थिक रोजगार का भी साधन था। लेकिन अब विगत दो साल से कोरोना महामारी का प्रसार रोकने के लिए मेला, पर्व, त्यौहार आदि पर प्रतिबंध है। जिसके कारण अनेक कलाकारों का रोजगार भी बंद हो गया और कई राज्यों के प्राचीन सांस्कृतिक विरासत पर भी ग्रहण लगने लगा।