Jamshedpur,30 Dec: सदर अस्पताल में अनुबंध पर कतिपय ऐसे चिकित्सक नियुक्त हो गए हैं जिनका लक्ष्य मरीजों की सेवा और सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था सुलभ कराना नहीं, बल्कि सरकारी खाते से लाख रुपये महीना उठाने और वहां के मरीजों को मुर्गा बनाने की ओर रहता है। उनके कंसल्टेशन का तरीका तकलीफदेह हो जाता है जब ऐसी दवा लिखते ( Prescribe) हैं जो खास दुकान में ही मिले या उनकी निजी क्लिनिक में मिले, दाम भी बेहद ऊंची हो। दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों से मिलकर कमीशन खाने , दवा दुकानों से कमीशन लेने और इससे भी मन नहीं भरता तब निजी क्लिनिक में खोली गई अपनी दुकानों से दवा बेचने के लिए तिकड़म करने की बू साफ साफ साधारण लोगों के आँख – नाक तक पहुंच जाती है । जबकि सरकारी अस्पताल में दवाओं की सप्लाई रहती है,ये डॉक्टर उन दवाओं को नहीं लिखते,क्योंकि उसमें उन्हें कोई कमीशन नहीं मिल सकता । सरकारी अस्पताल स्टोर में संभव हो कुछ दवाएं नहीं रहे ,लेकिन वे जान बूझ कर ऐसी दवाएं लिखते हैं जो बाहर ही खास दुकान में मिल पाएंगी जहाँ पहले से ही उनका हिस्सा बंधा होने की बात सुनने में आती है । सदर अस्पताल से जुड़े महकमे के अधिकारी और बाबू इस बात को भली भांति देखते जानते चुप लगाए रहते हैं। मेडिकल जैसे नोबल प्रोफेशन में बदनामी का यह बदनुमा दाग खुद इस प्रोफेशन में कैंसर की बीमारी की तरह गहरे पैठ जमा चुका है जो ऐसे लोभी चिकित्सकों के चलते बढ़ते ही जा रहा है। क्या स्वास्थ्य मंत्रियों, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के पास इसका कोई इलाज है ?
दवा लिखने के खेल के अलावा ड्यूटी टाइम का भी जबरदस्त खेल चलने की बात होती है। महीने में 25 दिन में बमुश्किल 6 से 7 दिन ही कई मान्यवर ड्यूटी करते हैं। अस्पताल आने और जाने का उनका अपना समय होता है, अनुबंध का समय के पालन की उम्मीद नहीं की जा सकती। इनमें कुछ महिला चिकित्सक हैं जो ज्यादा पूछताछ करने पर महिला प्रताड़ना का भी इल्जाम लगाने के लिए तैयार बैठी रहती हैं। चर्म रोग (डर्मेटोलॉजी), ई इन टी , हड्डी ( ऑर्थो ) आदि विभाग आज ऐसे ही महिला – पुरुष चिकित्सकों के चंगुल में पड़े हुए हैं। इन विभागों में इलाज के लिए आने वाले मरीजों को लगता है उन्हें सरकारी अस्पताल में आने पर भले ही डॉक्टर की फीस के मद में 500 से 1000 रुपये खर्च नहीं करने पड़ते , लेकिन दवाओं को प्राप्त करने के लिए उन्हें उक्त कमीशनखोरी का शिकार होने के लिए बाहर दुकानों में ही जाना पड़ता है। डर्मेटोलॉजी में लिखी गयी दवाएं सदर अस्पताल के ही सामने सड़क पार पूरे जमशेदपुर में वहीं मिलेंगी, नही तो विभाग की डॉक्टर की गोलमुरी में स्थित निजी क्लिनिक में खोली गई दवा दुकान में मिल पाएंगी। क्या अस्पताल के स्टोर में डर्मो कई कोई कंसल्टिंग दवा नहीं होती? दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों M.R.से इनके संबंध दवाओं के प्रचार प्रसार से इतर कमीशन लेने वाला होना कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं।
व्यवहार से भी ये कतिपय डॉक्टर मरीज से सीधे मुहं बात नहीं कर सकते, भले ही वे आपस मे गप करते समय बिता रहे हों , लेकिन मरीज की कतार को वे ऐसे सलटाते हैं जैसे पलक झपकाने की भी उन्हें फुरसत न हो। मरीज के लिए यह सपना ही रह जाता है कि उसे महसूस हो सके वह मदद के लिये आया है। patient को नहीं लगता कि किसी विशिष्ट ने उसे देखा और हिम्मत दी। डॉक्टर patient फ्लो के बीच किसी दूसरे चैम्बर में बैठे और फिर अपने चैम्बर में आकर फिर किसी साथी को बुलाकर मूंगफली खाये बातचीत करता रहे और फिर लोगों की कतार को मिनट में सलटाने की औपचारिकता पूरी करे, कुछ ऐसा ही दृश्य आमतौर पर डर्मो में देखने को मिला ।
स्वास्थ्य मंत्री से गृह जिले में इस ओर ध्यान देने की लोगों की मांग है, क्योंकि गुप्ता नामधारी कतिपय डॉक्टर उनके साथ कथित मनगढ़ंत नज़दीकियां जोड़कर उसको भुनाने से भी गुरेज नहीं कर रहे। कुछ अन्य चिकित्सक प्रभावशाली लोगों के संबंध के नामों का भी बेजा इस्तेमाल कर मानवसेवा को कलंकित कर रहे और सरकारी अनुबंध को महीना लाख रुपया उगाहने का जरिया बनाये हुए हैं।