हनुमान जी के भीतर यह तूफान चल ही रहा था कि रावण अपने दुस्साहस की समस्त सीमाएं तोड़ देता है। और माता सीता जी के वध हेतु अपनी चंद्रहास खड़ग निकाल लेता है। जिसका सीधा-सा अर्थ था कि रावण माता सीता के वध हेतु दृढ़ संकल्पित है।
श्री राम भावावेष में डूबे सेवक धर्म की शिखरता समझाने में तल्लीन हैं। वह भी अतिअंत सीमित शब्दों में। मानो नन्हीं-सी गागर में विशाल सागर को ला समेट दिया हो। प्रभु कहते हैं−
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।।
अर्थात् हे हनुमंत! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर जगत मेरे स्वामी भगवान् का रूप हैं। अर्थात् एक ऐसी अवस्था जिसमें सेवक का अंतःकरण पूर्णतः अपने स्वामी के प्रति ईश्वरत्व भाव से कूट−कूटकर भरा है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी विश्वास रत्ती भर भी न बदले अपितु हर परीक्षा में दिन दोगुना रात चौगुना बढ़े। संशय जिसके हृदय की चौखट की तरफ झांके भी न और सदा अपने स्वामी की क्रियाओं को दिव्य लीलाओं के रूप में देखें।
भला ऐसी दिव्य अवस्था श्री हनुमान जी के सिवा और कहाँ हो सकती थी। क्योंकि अपने संपूर्ण जीवन काल में एक भी ऐसा क्षण नहीं था जब हनुमान जी को श्री राम जी श्री हरि न प्रतीत होकर साधरण मनुष्य प्रतीत हुए हों। और अतिअंत विकट परिस्थिति भी अगर कोई आई हो जिसमें लगा हो कि अब तो श्री राम जी की प्रतिष्ठा को ठेस लग सकती है। और अब श्री राम जी यहाँ से कैसे कोई मार्ग निकालेंगे। तब भी श्री हनुमान जी ने पाया कि जो समाधान मेरे प्रभु कर सकते हैं उसकी तो कल्पना भी हम नहीं कर सकते।
जैसे रावण जब मंदोदरी एवं अन्य रानियाँ संग माता सीता जी के पास अशोक वाटिका में दाखिल होता है तो श्री हनुमान जी वहीं अशोक वृक्ष पर पत्तों की ओट में छुपे हुए थे। वे क्या देखते हैं कि माता सीता जी जब रावण का प्रणय प्रस्ताव ठुकराती हैं तो रावण अनेकों अशोभनीय तर्कों व नीतियों से माता सीता जी को सहमति देने को विवश करना चाहता है। जिसे देख श्री हनुमान जी बस जैसे−तैसे अपने क्रोध को रोक रहे हैं। वे चाहते तो उसी समय रावण का वध कर सकते थे। लेकिन इसमें श्री राम जी के आदेश की अवमानना हो जाती। क्योंकि श्री राम ने ही कहा था कि हे हनुमंत लाल−
बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।
कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।।
अर्थात् हे हनुमंत! तुम बहुत प्रकार से सीताजी को समझाना और मेरे बल व विरह का वर्णन करना। श्री हनुमंत जी ने सोचा कि अगर मैं रावण को अभी मार दूंगा तो माता सीता को फिर क्या समझाना या कहना। क्योंकि फिर तो स्पष्ट ही हो जाएगा कि लो प्रभु अब आ ही रहे हैं। दूसरा रावण को अगर मैं ही मार डालूं तो जगत में तो मेरे ही बल का प्रचार−प्रसार हो जाएगा। शायद माता सीता भी यही मानें। यद्यपि श्री राम जी ने तो कहा है कि मेरे बल और विरह का वर्णन करना। लेकिन समस्या यह है कि रावण तो मईया को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किए जा रहा है। जो मुझसे सहन नहीं हो पा रहा। तो क्या मैं यूं ही मूक दर्शक बन कर देखता रहूं। और साथ में किसी अनर्थ के घटने का इन्तज़ार करूँ। या फिर वर्तमान परिस्थिति के अनुसार नीचे रावण पर टूट पडूं। मैं कुछ भी तो निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। लेकिन क्या पता मेरी ही तरह कोई अन्य दूत यूं पेड़ में छुपा बैठा हो लेकिन कोई और भी तो नहीं है फिर श्री राम जी किसे भेजेंगे।
सज्जनों हनुमान जी के भीतर यह तूफान चल ही रहा था कि रावण अपने दुस्साहस की समस्त सीमाएं तोड़ देता है। और माता सीता जी के वध हेतु अपनी चंद्रहास खड़ग निकाल लेता है। जिसका सीधा-सा अर्थ था कि रावण माता सीता के वध हेतु दृढ़ संकल्पित है। और अब भी श्री हनुमंत लाल की आँखें क्रोधाग्नि से लाल न हों और वे रावण पर न झपटें। तो उनके यहां आने का अर्थ ही क्या रह जाएगा। श्री हनुमंत जी बस अब कूदने ही वाले थे कि सृष्टि व दृष्टि से उलट एक बड़ी विचित्र घटना घटी। किसी ने रावण की चंद्रहास खड़ग का प्रहार वहीं शांत कर दिया। रावण की कलाई पकड़ कर उसे ऐसा नहीं करने पर विवश कर दिया। जिसे देख श्री हनुमंत जी की आँखें वहीं फटी की फटी रह गई। क्योंकि रावण को जिसने रोका वह कोई और नहीं अपितु उसकी पत्नी मंदोदरी थी। और वर्तमान घटनाक्रम के अनुसार तो मंदोदरी को ऐसा करना ही नहीं चाहिए था। क्योंकि सीता जी का जीवित रहने का सीधा-सा अर्थ था मंदोदरी की भावी सौतन का संभावित बने रहना। और एक विवाहित स्त्री महान से महान कष्ट स्वीकार कर सकती है लेकिन अपनी सौतन का होना उसे कदापि स्वीकार नहीं होता। और यह स्वर्णिम अवसर था कि रावण स्वयं ही उसके रास्ते की बाधा को सदा के लिए हटा रहा था। मंदोदरी को तो अपने इष्ट देवों का आभारी होना चाहिए था। लेकिन परिस्थिति के बिल्कुल प्रतिकूल दृष्य घटा कि स्वयं मंदोदरी ने ही सीता वध् की इस कलुषित घटना पर विराम लगवा दिया।
यह देख श्री हनुमंत जी का हृदय और रोम−रोम पुलकित हो उठा। श्री राम जी के प्रति उनका विश्वास दृढता की महान ऊँचाई पर जा विराजा। क्योंकि उन्होंने स्पष्ट देखा कि मैं तो यही सोच रहा था कि यहाँ माता हितकारी व शुभचिंतक तो मात्रा ही हूँ और वह भी पेड़ के पत्तों में छुपकर बैठा हूँ। लेकिन यहाँ तो श्री राम जी ने ऐसे पात्र को सामने ला खड़ा किया जो रावण से छुपा नहीं अपितु साथ ही खड़ा था। अर्थात् उनकी पत्नी मंदोदरी। वाह प्रभु आप सचमुच धन्य हैं। दया के अपार सागर हैं, कण−कण व जड़ चेतन के आप ही स्वामी हैं। और सब के भीतर प्राणों पर अधिकार रखने वाले प्राणाधर हैं। आरंभ में वर्णित चौपाई में श्री राम सेवक के ऐसे ही भाव की तो चर्चा करते हैं ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत’
और ये सभी गुण श्री हनुमान जी के भीतर हैं।