पोखरिया के संत के रूप में कभी राजनीति शुरू किए थे। उस दिन शराब,सूदखोरी और ज़ुल्म के खिलाफ़ चिंगारी बनकर उभरे थे। यह चिंगारी आज मशाल बन गई है।दिशोम गुरू की रौशनी से झारखण्ड की धरती अब सराबोर हो चुकी है।
गुरुजी से कई मौके पर बातचीत करने का मौका मिला। वे अक़्सर कहा करते हैं कि जब तक झारखंडियों की सोच नहीं बदलेगी तब तक सपने का झारखण्ड नहीं बन सकता है। झारखण्ड अलग राज्य बन गया। राजनीतिक सत्ता का फेरबदल होता रहेगा लेकिन इससे अलग राज्य बनने के पीछे का मकसद जस का तस रह जाएगा। भाषा, संस्कृति बुरी तरह से हमले का शिकार हुई है लेकिन इस दिशा में कोई ठोस काम अब तक नहीं दिख रहा है। बदलाव के लिए जागरूकता चाहिए, जो नदारद है।
देश में जब सैनिक विद्रोह हुआ उसे राष्ट्रीय आंदोलन बता दिया गया लेकिन उसके काफी पहले से आदिवासी न सिर्फ अंग्रेज बल्कि महाजन, शराब, रूढ़िवाद, कुरीति के खिलाफ़ आंदोलित रहे। सिद्धो, कान्हो, फूलो, झानो..लम्बी शहादत की फेहरिश्त है। देश,माटी और समाज के लिए वे कुर्बान होते रहे। मीरज़ाफर की साजिश से बचाने के लिये सिराजुद्दौला तक को शेल्टर दिया लेकिन सिर्फ़ हूल के नाम पर इस आंदोलन को ही मिटाने की कोशिशें होती रहीं।
आज गुरुजी का जन्मदिन है। पढ़िए उनकी कहानी.
शिबू सोरेन यानी झारखंड के दिशोम गुरू. लेकिन दिशोम गुरू का मतलब क्या? दरअसल झारखंड के संथाल बहुल इलाकों में दिशोम गुरू का मतलब होता है देश का गुरू. वो दिशोम गुरू कैसे बने? झारखंड राज्य की लड़ाई को कैसे अंजाम तक पहुंचाया? आज हम इस पर भी चर्चा करेंगे क्योंकि आज यानी 11 जनवरी को शिबू सोरेन का 77वां जन्मदिन है.
इन सबके पहले ये जानना जरूरी है कि वो कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने शिबू सोरेन को इस मुकाम तक पहुंचाया? यह जानने के लिए हमें 50 के दशक में चलना होगा.
महाजनों के खिलाफ मोर्चा
सोबरन सोरेन रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड के नेमरा गांव के रहने वाले थे. वही रामगढ़, जहां के राजा कामाख्या नारायण सिंह थे और जहां 1939 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था. उस जमाने में सोबरन सोरेन की गिनती उन चंद आदिवासियों में होती थी, जो पढ़े-लिखे थे. सोबरन पेशे से शिक्षक थे. उनकी राजनीति में भी दिलचस्पी थी. वह शांत, सौम्य स्वभाव के थे, लेकिन लेकिन किसी भी तरह का अन्याय बर्दाश्त नहीं करते थे. महाजनों-सूदखोरों से उनकी एकदम नहीं पटती थी. उस दौर में छोटा नागपुर के इलाके में महाजनों के शोषण का एक प्रचलित तरीका था- महाजन ज़रूरत पड़ने पर सूद पर धान देते, और फसल कटने पर डेवढ़ा यानी डेढ़ गुना वसूलते. सूद न चुकाने पर जोर-जबरदस्ती से गरीब आदिवासियों की जमीन अपने नाम करवा लेते. जिससे ज़मीन लेते, उसी से उस ज़मीन पर बेगार खटवाते. कहा जाता है कि महाजनों ने ही उस इलाके में महुआ के शराब का प्रचलन भी शुरू किया, ताकि आदिवासी समाज के लोगों को नशे का आदी बनाकर अपना काम करवाया जा सके.
सोबरन सोरेन आदिवासियों को समझाते और नशाखोरी छोड़ने की अपील करते. महाजनों के खिलाफ तो वह पहले से ही थे. एक बार उन्होंने एक महाजन को सरेआम पीटा भी था. इसलिए वे महाजनों की आंख की किरकिरी बन गये थे.
यह 27 नवंबर 1957 की सुबह थी. सोबरन सोरेन सुबह के अंधेरे में ट्रेन पकड़ने के लिए निकले. स्टेशन का रास्ता जंगलों से होकर गुजरता था. वह उसी रास्ते से निकले थे. लेकिन तभी घात लगाकर जंगल में बैठे अज्ञात लोगों ने उनकी हत्या कर दी. शक की सुई महाजनों की ओर घूमी, लेकिन अंततः कुछ हुआ नहीं, क्योंकि किसी के खिलाफ कोई सबूत नहीं था.
उन दिनों सोबरन सोरेन के बेटे शिबू सोरेन गोला के एक स्कूल में पढ़ते थे. उन पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा. उन्होंने महाजनों के अत्याचार के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी. उनकी इस लड़ाई को ‘धनकटनी आंदोलन’ कहा गया. बाद के दिनों में इस आंदोलन में बिनोद बिहारी महतो और कामरेड एके राय जैसे मजदूर नेता भी शामिल हुए. सबने मिलकर महाजनों के अत्याचार के खिलाफ और साथ ही कोयलांचल में माफियागिरी के खिलाफ लड़ाई लड़ी. और इसी लड़ाई के दौरान का साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा यानी झामुमो के उदय का एक कारण बना.
बांग्लादेश की आजादी और झामुमो का गठन
झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा ने एक किताब लिखी है, जिसका नाम है- अनसंग हीरोज ऑफ झारखंड. इस किताब में उन्होंने झामुमो के गठन का जिक्र किया है. इस किताब के मुताबिक,
4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय, तीनों बिनोद बिहारी के घर पर मिले. इस बैठक में तीनों ने सर्वसम्मति से तय किया कि झारखंड मुक्ति मोर्चा नाम के एक राजनीतिक दल का गठन किया जाएगा, जो अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर संघर्ष करेगा. तीनों नेता बांग्लादेश को हाल में मिली आजादी और उसमें बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी की भूमिका से काफी प्रभावित थे. इसी वजह से इन लोगों ने भी नई पार्टी के नाम में मुक्ति शब्द को जगह दी. विनोद बिहारी महतो को झामुमो का अध्यक्ष और शिबू सोरेन को महासचिव बनाया गया. हालांकि झारखंड राज्य की मांग इसके काफी पहले से हो रही थी. जयपाल सिंह और बागुन सुंब्रई जैसे नेता अक्सर झारखंड राज्य की मांग उठाते रहते थे.
एके राय और विनोद बिहारी महतो कम्युनिस्ट पार्टियों से संबद्ध रहे थे, जबकि शिबू सोरेन की इससे पहले कोई दलीय प्रतिबद्धता नहीं थी. वह आदिवासियों के स्थानीय आंदोलनों से जुड़े हुए थे. झामुमो बनने के बाद भी शिबू सोरेन आदिवासियों के मुद्दों को लेकर ही आंदोलन चलाते रहे.
महिलाओं के हाथ हसिया, पुरुषों के हाथ तीर-कमान
शिबू सोरेन अपने साथियों के साथ टुंडी, पलमा, तोपचांची, डुमरी, बेरमो, पीरटांड में आंदोलन चलाने लगे. अक्टूबर महीने में आदिवासी महिलाएं हसिया लेकर आती. जमींदारों के खेतों से फसल काटकर ले जातीं. मांदर की थाप पर मुनादी की जाती. खेतों से दूर आदिवासी युवक तीर-कमान लेकर रखवाली करते. महिलाएं फसल काटतीं. इससे इलाके में कानून-व्यवस्था की स्थिति पैदा हो गई. कई लोगों की मौत हुई. इसके बाद शिबू सोरेन पारसनाथ के घने जंगलों में चले गए, और वहीं से आंदोलन चलाने लगे. उन्होंने यहां आदिवासियों के लिए रात्रि शिक्षा की व्यवस्था की. आंदोलनकारियों को गांव पर आधारित अर्थव्यवस्था का मॉडल समझाया.
लेकिन अपने आंदोलन के दौरान शिबू सोरेन ने मर्यादा का हमेशा ख्याल रखा. उन्होंने अपने समर्थकों को साफ-साफ कह रखा था कि ये लड़ाई खेत की है इसलिए खेत पर ही होगी. कोई भी महाजन वर्ग की महिलाओं के साथ बदसलूकी से पेश नहीं आएगा. और न ही खेत छोड़कर महाजनों की किसी अन्य संपत्ति को कोई नुकसान पहुंचाएगा.
सबने उनका कहा माना. शिबू सोरेन दिशोम गुरू और गुरू जी जैसे उपनाम से संबोधित किए जाने लगे. मोटे तौर कहें तो पार्टी अध्यक्ष भले ही विनोद बिहारी महतो थे लेकिन पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता शिबू सोरेन ही थे.
जब सोरेन ने किया सरेंडर
25 जून 1975 को जब देश में इमरजेंसी लगी, तब शिबू सोरेन पर भी गिरफ्तारी का खतरा मंडराने लगा. देश के अन्य विपक्षी नेताओं के साथ उनकी गिरफ्तारी का भी आदेश दिया गया. लेकिन वह तो फरार चल रहे थे. लेकिन तब केबी सक्सेना जैसे तेज-तर्रार IAS अधिकारी जिन्हें आदिवासी समस्याओं की गहरी समझ थी, धनबाद के डीसी थे. वह शिबू सोरेन को भी बखूबी समझते थे. उन्होंने ही शिबू सोरेन को समझा-बुझाकर आत्मसमर्पण करने के लिए राजी किया. इसके बाद 1976 में शिबू सोरेन ने सरेंडर कर दिया. उन्हें धनबाद जेल भेज दिया गया.
पहले चुनाव में मिली हार
1977 में शिबू सोरेन भी दुमका से लोकसभा चुनाव लड़े, लेकिन भारतीय लोकदल के बटेश्वर हेंब्रम के हाथों हार गए. लोकसभा जाने का दूसरा मौका उन्हें 3 साल बाद तब मिला, जब मध्यावधि चुनाव की नौबत आई. इस चुनाव में शिबू सोरेन ने दुमका सीट पर कांग्रेस (ई) के पृथ्वी चंद्र किस्कू को
कांग्रेस से गठबंधन
1980 के लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बिहार समेत 9 राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त कर दिया. नए चुनाव की तैयारी शुरू हो गई. लेकिन तब तक जनता पार्टी के 3 साल के शासन के दौरान बिहार में सोशलिस्ट राजनीति काफी मजबूत हो चुकी थी. इससे निबटने के लिए इंदिरा गांधी को नए-नए सहयोगियों की तलाश थी. इस दौर का एक दिलचस्प किस्सा हमें बताया झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार एस.एन. विनोद ने, जिन्होंने आगे चलकर प्रभात खबर अखबार को शुरू किया. बकौल विनोद-
“बात 1980 की है. बिहार विधानसभा चुनाव होने वाले थे. उसी दौर में एक दिन केंद्रीय मंत्री भीष्म नारायण सिंह के हाथों रांची से दिल्ली के बीच नई ट्रेन का उद्घाटन होना था. पहले दिन की ट्रेन में हम पत्रकारों के लिए भी एक बोगी रिजर्व थी. जब भीष्म बाबू प्लेटफॉर्म पर पहुँचे तो उन्होंने मुझे यह कहते हुए दिल्ली जाने से रोक दिया कि मुझे आपसे कुछ जरूरी बात करनी है. ट्रेन का उद्घाटन कार्यक्रम खत्म होने के बाद भीष्म बाबू के साथ मेरी बातचीत हुई. भीष्म बाबू ने मुझसे पूछा, “ज्ञान रंजन जी (बिहार के एक कद्दावर कांग्रेसी नेता) ने केदार पांडे (प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष) के मार्फत मैडम (प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी) को सुझाव दिया है कि कांग्रेस को झामुमो के साथ मिलकर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ना चाहिए. मैडम ने मुझसे इस बाबत पूछा है. अभी मुझे दिल्ली लौटकर शाम 6 बजे मैडम को बताना भी है कि क्या करना चाहिए?”
तब मैंने भीष्म बाबू से कहा कि शिबू सोरेन से बात करके 6 बजे से पहले मैं आपको बता दूंगा.
शिबू सोरेन उस दिन रांची में ही थे. मैं भीष्म बाबू से मिलकर निकल गया. ज्ञान रंजन को ही शिबू सोरेन को बुलाने के लिए कहा. उन दिनों रांची के आनंद होटल में मेरा दफ्तर था. शिबू सोरेन को लेकर ज्ञान रंजन होटल पहुंचे. मैंने सोरेन से अकेले में बात की. कांग्रेस से गठबंधन की बाबत पूछने पर उन्होंने कहा, “हां भैया अब (कांग्रेस के) साथ में ही रहेंगे!”
इसके तुरंत बाद मैंने नजदीक में स्थित टेलीफोन एक्सचेंज में जाकर काॅल लगाया. भीष्म बाबू को शिबू सोरेन की ‘हां’ के बारे में बताया. तब भीष्म बाबू ने यह सूचना इंदिरा गांधी को दी, और कांग्रेस-झामुमो का गठबंधन हुआ.”
झारखंड राज्य का गठन
अगस्त 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संसद में अलग झारखंड राज्य के गठन का प्रस्ताव पेश किया. इस प्रस्ताव को दोनों सदनों की मंजूरी मिल गई. 15 नवंबर 2000 को शिबू सोरेन के सपनों का राज्य झारखंड अस्तित्व में आ गया. लेकिन झारखंड की 81 सदस्यीय विधानसभा में एनडीए का बहुमत था, लिहाजा शिबू सोरेन मुख्यमंत्री नहीं बन सके. बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने.
2005 के विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश मिलने के बाद राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने तत्कालीन केन्द्रीय कोयला मंत्री शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी, लेकिन वह बहुमत साबित करने में नाकाम रहे.महज 10 दिनों के भीतर ही उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी.
दूसरी बार शिबू सोरेन 2008 में मुख्यमंत्री बने, लेकिन चूंकि वह मुख्यमंत्री बनने के वक्त विधायक नहीं थे. ऐसे में उन्होंने तमाड़ सीट से विधायकों का चुनाव लड़ा, लेकिन निर्दलीय राजा पीटर के हाथों हारने के कारण उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी.
तीसरी बार 2009 में शिबू सोरेन भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस बार भाजपा से अंदरूनी खींच-तान के कारण उन्हें कुछ ही महीनों के भीतर मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा.
फिलहाल शिबू सोरेन के बेटे हेमंत सोरेन उनकी राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं.
इस बीच बुढ़ापा और उम्रजनित बीमारियां शिबू सोरने पर हावी होने लगीं. वह सक्रिय राजनीति से दूर होते चले गए. फिलहाल उनके बेटे हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं. लेकिन यह भी एक विडंबना ही कही जाएगी कि जिस नेता ने झारखंड राज्य की लड़ाई सबसे मजबूती से लड़ी, उसे कभी पूर्ण कार्यकाल के लिए सीएम बनने का मौका नहीं मिल सका.