देवसंस्कृति का प्रतीक है एक माह तक आयोजित होनेवाली झारखंड के टुसु मेला

सुधीर गोराई/विश्वरूप पांडा

ऐसे तो लोग मेला को मनोरंजन का साधन मानते है। परंतु मेला उदगम एवं देवी-देवताओं के पूजन का विशेष महत्व व इतिहास है। सनातन धर्म के अनुसार सभी पूजा का शुभारंभ गणेश जी के आराधना के बाद होता है। शिवपुराण के अनुसार गणेश जी की पूजा का शुभारंभ भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति भगवान गणेश जी का जन्म हुआ था। अपने माता-पिता की परिक्रमा लगाने के कारण भगवान शिव एवं माता पार्वती ने उन्हें विश्व में सर्वप्रथम पूजे जाने का वरदान दिया। दुर्गा पूजा का पर्व देवी की बुराई के प्रतीक राक्षस महिषासुर पर विजय के रूप में मनाया जाता है। यह विश्व स्तरीय पर्व है भारत के साथ साथ बंगलादेश, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड, कुवैत आदि देशों में वैदिक रीति रिवाजों से आयोजन किया जाता है। शिव जी को संहार का देवता कहा जाता है। शिव जी सौम्य आकृति एवं रौद्र रूप दोनों रूप धारण करने के लिए विख्यात है। सृष्टि की उत्पत्ति, संचालन एवं संहार के अधिपति शिव है। शिव जी अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदि स्रोत है यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार है। शिव को कल्याणकारी माना गया है। लेकिन वे सदा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किये हैं। शिव अधिकांश चित्र में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है।

टुसु पर्व के इतिहास का विशेष लिखित स्रोत नहीं है। लेकिन आध्यात्मिक मत के अनुसार टुसु पर्व ”देवसंस्कृति” का प्रतीक है। झारखंड में आयोजित टुसु मेला के ”टुसुमणि” कृष्ण की प्रेमिका राधिका का प्रतिरूप माना जाता है। इसे कहीं मूर्ति के रूप में तो कहीं चौड़ाल के रूप में पूजा जाता है। यह भी मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन धनु राशि से मकर राशि में सूर्य देव का प्रवेश करने की शुभ घड़ी में उगते भगवान भास्कर को अर्घ देकर टुसु के रूप में देवी लक्ष्मी व सरस्वती की पूजा की जाती है। सूर्यदेवता, लक्ष्मी, सरस्वती, राधिका एवं कृष्ण का आराधना करना देवसंस्कृति का प्रतीक है। लेकिन जो भी हो इस पर्व में बहुत से कर्मकांड होते हैं और यह अत्यंत रंगीन और जीवन से परिपूर्ण त्यौहार है।

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