तेवर ने ही चमकता आईना को खजूरों के बीच वटवृक्ष बनाया

20वीं सदी लगभग ढलान पर थी. एक पुराना घर गिर गया था. उसी बनियाद पर नया घर खड़ा करना था. रातोरात खड़ा करना था. लेकिन संयोग से पूंजी के नाम पर कुछ खास नहीं था सिवाय हिम्मत, हौसला, जुनून और युवाओं की समर्पित टीम के अलावा. लेकिन इसी बिना पर रातोरात नई इमारत गढ़ भी दी गई. उस नई इमारत का नाम था या है-‘चमकता आईना’. दैनिक समाचार पत्र के इतिहास में यह एक अभिनव प्रयोग ही था. बिल्कुल अपरिचित नाम, ब्रांड वैल्यू के नाम पर कुछ भी नहीं. बस एक जाना पहचाना तेवर साथ में था जो ‘नए घर’ को पुराने के मुकाबिल खड़ा कर दिया था.
चमकता आईना किसी धन्नासेठ का अखबार न पहले कभी था और न आज है. विशुद्ध रूप से पत्रकारिता की पृष्ठभूमि रखने वाले लोग ही इसे चला रहे हैं. इस अखबार की जमा पूंजी या ब्रांड वैल्यू जो भी कहें, बस तेवर ही है. अपने इस तेवर के कारण यह अखबार कई बार पेरशानी में भी फंसा लेकिन तब भी समझौता नहीं किया. इस तेवर के मूल में इसकेे यशस्वी संस्थापक संपादक ब्रह्मदेव सिंह शर्मा की बड़ी भूमिका रही. वैसे तो भौतिक रूप से आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अखबार के तेवर के रूप में हमेशा आदर्श बने रहेंगे.
मैंने उनसे एक बार सवाल किया था कि गुरुजी आप इतने लोगों से जुड़े हैं. पूरे झारखंड-बिहार के लोग आपको नाम से जानते हैं. इनमें अच्छे बुरे सभी तरह के लोग हैं. बुरे लोगों के काले चि_े अक्सर हमलोगों के पास आते रहते हैं. कभी-कभी धर्मसंकट हो जाता है कि क्या करें, क्या न करें. उन्होंने कहा था-खबर में अगर सच्चाई है और सबूत आपके पास हैं तो छाप डालिए. कोई कुछ गिला शिकवा लेकर आएगा तो छपने के बाद ही आएगा न, मैं देख लूंगा.
एक वाकये का जिक्र करना यहां प्रासंगिक जान पड़ता है. झारखंड की मुख्यधारा का एक बड़ा अखबार है जिसे एक कंपनी चलाती है. उस कंपनी के वीपी(उपाध्यक्ष) को एक तत्कालीन एसपी की शह पर एक गुंडे ने कंपनी परिसर में घुसकर मारा था. गालियां दी थीं….लेकिन उस कंपनी के अपने उस बड़े अखबार ने उस घटना को कहीं नहीं छापा, सिवाय हमारे अखबार के. बाद में उस एसपी ने हमारे अखबार को धमकी दी और रिपोर्टर से कहा था-रात में बॉडीगार्ड लेकर चलते हो क्या? कानूनी लड़ाई भी चली. बाद में जीत अखबार की हुई. कहने का तात्पर्य यह कि तेवर ही इस अखबार को मेरूदंड रहा है और उस तेवर के स्रोत गुरुजी रहे. अखबार के प्रति अवाम का भरोसा इतना पुख्ता रहा कि लोग थाना जाने से पहले इस अखबार में दफ्तर में अपनी व्यथा-कथा बताना श्रेयस्कर समझते हैं. सियासी जगत में इस अखबार ने इसलिए विश्वास जमाया कि इसने सत्ता से सवाल करना सिखाया. पीडि़त-प्रताडि़त लोगों की जुबान बनकर खुद सवाल किया. क्योंकि अखबार की भूमिका हमेशा से शाश्वत विपक्ष की होती है. विपक्ष लोकतंत्र में भले कमजोर हो जाए लेकिन मीडिया को सशक्त रहना चाहिए. मुखर रहना चाहिए.
भले बहुमत के गुमान में कोई सरकार उसकी आवाज को नजरअंदाज कर दे लेकिन समय के सीने पर सवालों के हर हरफ उत्कीर्ण होना चाहिए. ठीक उस चिडिया की तरह जो जंगल की आग बुझाने में अपनी चोंच से पानी लाकर डालती रहती है और पूछने पर बताती है कि वह जानती है कि जंगल की आग उसकी चोंच के पानी से बुझने वाली नहीं लेकिन जब भी‘जंगल की आग’ का अफसाना लिखा जाएगा तो उसका नाम आग लगाने वालों में नहीं, बुझाने वालों में लिखा जाएगा.

    पत्रकारिता का बुरा दौर
    मीडिया आज बुरे दौर से गुजर रहा है. एक न्यूज चैनल दूसरे न्यूज चैनल को सत्ता का दलाल बता रहा है. ‘गोदी मीडिया’ का विशेषण दे रहा है. गलतियां सत्तारूढ़ दल करता है और सवाल विपक्ष से किया जाता है. आम आदमी भी खबर की भाषा पढ़-सुनकर बता देगा कि कौन किसकी चापलूसी कर रहा है. यही हाल प्रिंट मीडिया का भी है. एक दूसरे की जड़ खोदने में लगे रहते हैं. इसका एकमात्र कारण यह है कि अखबार पत्रकार नहीं, अब साहूकार चला रहे हैं. वे अखबार को ‘प्रोडक्ट’ कहते हैं और इनपुट के बदले मोटा ‘आउटपुट’ चाहते हैं. चाहते हैं कि हर खान का ठेका उन्हें ही मिले, कंपनी का लाइसेंस भी उन्हें ही मिले, टैक्स होलीडे भी उन्हें ही मिले और हो सके तो राज्य सभा की एक सीट भी. तय मानिए, ऐसे मालिकानों के अखबारों को कभी पाठक नहीं मिलेंगे, उन्हें ग्राहक ही खोजने होंगे. वो भी ऐसे नहीं-अखबार के साथ बॉम्बे डाइंग की बेडशीट, बाल्टी, डिटर्जेंट और मसालों के पैकेट भी देने होंंगे. हॉकर्स को डिनर के साथ ‘ड्रिंक्स’ का जुगाड़ देना होगा. वितरण व्यवस्था सुचारू बनाए रखने के लिए सर्कुलेशन की लंबी-चौड़ी फौज रखनी होगी. साथ में इवेंट मैनेजमेंट ग्रुप भी जो साल में पाठकों, शॉरी ग्राहकों के लिए नाच-गान की व्यवस्था करे.
    लेकिन कस्बाई या छोटे शहरों से निकलने वाले अखबारों के साथ इतने तामझाम नहीं होते. वे तेवर से पहचाने जाते हैं. उनके पाठकों को अच्छी तरह मालूम होता है कि आज अगर किसी सत्तारूढ़ दल के मंत्री ने कहीं बवाल काटा है या घपला किया है तो सच्ची खबर कहां आएगी. तेवर किसका बढिय़ा होगा. फॉलोअप स्टोरी किसकी ‘मैनेज’ नहीं होगी. हालांकि महामारी जब आती है तो किसी घर को बख्शती नहीं. स्लम एरिया अगर चपेट में आते हैं तो पॉश कॉलोनियां भी छूटती नहीं. लेकिन तवारीख के पन्ने इस बात के गवाह हैं कि जंग-ए-आजादी के दौर में भी मुख्यधारा के अधिकतर अखबारों ने आजादी के परवानों का साथ नहीं दिया था. वे छोटे-छोटे नियत-अनियतकालीन अखबार ही थे जो आजादी के जंग के चिराग में तेल-बाती डाल रहे थे. भले वे चंदे के पैसे से चलते थे लेकिन पत्रकारिता मिशन की करते थे.

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