जाति न पूछो

कितना अच्छा होता कि जाति की बात नहीं होती। कोई किसी की जाति न पूछता। लोक सभा में जाति पूछने और जाति पूछे जाने का विरोध करने वालों को हंगामा करने की नौबत ही नहीं आती।
देश में जात- पात को खत्म करने की जितनी बातें होती हैं उतना ही देश को जात-पात और धर्म की जकड़ में डालने का सारा इंतजाम राजनीतिक दल की ओर से किया जाता है । अभी संसद में जो कुछ हो रहा है उसे इसकी पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है । आमतौर पर राष्ट्रीय दलों से यह अपेक्षा रही है कि वे इन सरी बातों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की ही बात करेंगे। जातीयता, क्षेत्रवाद आदि के पचड़े में सामान्य तौर पर राष्ट्रीय दल नहीं पड़ते मगर आज की राजनीति में सब कुछ संभव है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने बजट पर हो रही चर्चा के दौरान जात-पात का मुद्दा कुछ इस तरह उछाल कि अब सारे मुद्दे पीछे छूट गए हैं । अब बजट पर हो रही चर्चा जाति के ही इर्द गिर्द होने लगी है। हर कोई जाति की ही बात कर रहा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने यह कहकर आग में घी डालने का काम किया कि जिसकी जाति के बारे में नहीं पता वह जात-पात की बात करता है। इस मुद्दे पर सारा विपक्ष हंगामा करने लगा है कि आप किसी से जाति नहीं पूछ सकते। यह बात भी सही है किसी से उसकी जाति नहीं पूछी जाती। पूछी जानी भी नहीं चाहिए मगर अब जिस तरह का माहौल बना दिया गया है उसमें जाति को लेकर जिस तरह का घृणा भाव पैदा किया जा रहा है, वह समाज को एक गहरे खतरे की ओर ले जा रहा है। बजट तैयार करने और बजट का हलवा खाने वालों की जाति राहुल गांधी ने पूछी। संसद के इतिहास में शायद इसके पहले किसी ने इस तरह का सवाल नहीं किया होगा।
यहां एक बात साफ है कि देश में सवर्ण को ही सॉफ्ट टारगेट बनाया जाता है। आप सवर्ण की जितनी भी लानत- मलानत कर दें, उनको भला बुरा कहें उनके पक्ष में कोई खड़ा नहीं होगा। यहां तक कि ऐसे मुद्दे पर सवर्ण भी तटस्थ होकर या खुद को बुद्धिजीवी बताने वाले भी इस तरह विभाजन की बात करने वालों का ही समर्थन करते नजर आएंगे।
सवर्ण चाहे चपरासी ही क्यों ना हो उसे सामंती, मनुवादी और शोषक ही कहा जाता है। उसके पक्ष में बात करने का साहस किसी में नहीं होता। उसके बच्चे में लाख प्रतिभा हो लेकिन उसका कटऑफ इतना अधिक होगा कि उसे मौका ही नहीं मिलेगा। ऐसों के बारे में लंबे आलेख, कहानी प्रकाशित नहीं होते। ऐसे लोग को हर एक सिस्टम में पीछे धकेलने और जलील करने का सारा इंतजाम कर दिया जाता है। सरकारी नौकरी पेशा में तो अब उनके लिए दरवाजे लगातार बंद हो रहे हैं, राजनीति में भी कुछ ऐसा ही किया जा रहा है। अब योग्यता को पीछे रखकर जाति को प्रमुखता दी जाने लगी है ।केंद्रीय मंत्रिमंडल हो या राज्यों का मंत्रिमंडल लोकसभा में टिकट बंटवारे की बात हो या विधानसभा में या फिर संगठन के पदों पर चुनने की बात, इन सभी में योग्यता गौण होती जा रही है और इन पर जाति हावी होने लगी है। अब तो आलम यह हो गया है कि डंके की चोट पर लोगों की जाति बताने का काम शुरू हो गया है। देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की योग्यता की चर्चा नहीं होती यह बताने का प्रयास होता है कि एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाया गया है।
ऐसा नहीं है कि आजादी के पहले और आजादी के तुरंत बाद जात-पात नहीं थी मगर इस तरह की बात करने से राजनीतिक दल के लोग परहेज करते थे। कांग्रेस का उसे समय देश की राजनीति पर एकछत्र राज था और उसके निर्णय पर कोई सवाल नहीं होता था। उससे समय को यह नहीं पूछता था कि बजट तैयार करने वालों और बजट का हलवा खाने वाले किस जाति के हैं ? उन दिनों योग्यता की बात होती थी। अब वही लोग बजट का हलवा खाने वालों की जाति पूछ कर क्या संदेश देना चाहते हैं ?भारतीय जनता पार्टी के लिये धर्म की राजनीति उसे सत्ता हासिल करने का सबसे अचूक हथियार लगता रहा है। सत्ता से दूर होने के बाद अब कांग्रेस को लगता है कि भाजपा की धर्म की राजनीति को जाति की राजनीति से ही काटा जा सकता है । सो धार्मिक उन्माद से मुकाबला करने के लिए जातीय उन्माद फैलाने और भडक़ाने का पूरा इंतजाम किया जा रहा है। क्या ऐसी ही भडक़ाऊ बातें कर हम समाज में समरसता की बात कर सकते हैं या यह अपेक्षा कर सकते हैं कि आपस में कोई कटुता ना हो । कोई भी दूध का धुला नहीं है। सभी को सत्ता चाहिए और इसके लिए फूट डालो और राज करो कि जो नीति अंग्रेजों की रही है, आज की राजनीतिक जमात उससे कहीं बढ चुकी हैं।

Share this News...