कल, अपने “मन की बात” कार्यक्रम में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय खिलौनों के निर्माण व उपयोग पर जोर दिया। पीएम यह बात समझते हैं कि अमेरिकी व यूरोपीय बाजारों की तरह ही, भारतीय खेल बाजार के अधिकतर हिस्से पर भी चीनी खिलौनों का कब्जा है। महंगे खिलौनों की बात छोड़िये, 10-20 रुपये में बिकने वाले छोटे-मोटे खिलौने भी अब चीन से आते हैं, जिसके बदले, उसे हजारों करोड़ की आय होती है।
नब्बे के दशक में, आर्थिक उदारीकरण के दौर के बाद, भारत ने अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को बुलाने, और एक्सपोर्ट को बढ़ावा देने के लिये, हजारों की संख्या में स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाये। देश के कई शहरों में फैले इन विशेष जोनों से फायदा कितना मिला, यह तो पता नहीं, लेकिन चीन ने इसके ठीक विपरीत समुद्र तटीय क्षेत्रों में, कुछ गिने-चुने SEZ बनाये, जिनमें से हर एक जोन, एक खास इंडस्ट्री पर फोकस करता है, और इन्हीं SEZ ने उसे दुनिया की फैक्ट्री के तौर पर स्थापित कर दिया।
उदाहरण के तौर पर, दक्षिणी चीन का शेनझेन शहर है, जहाँ दुनिया भर में इलेक्ट्रॉनिक्स, आईटी व तकनीकी उत्पादों का सबसे ज्यादा निर्माण किया जाता है। इसी प्रकार दक्षिण चीन के गुआंगडोंग प्रान्त में एक शहर है, शांताऊ, जो खिलौनों के निर्माण के लिये दुनिया भर में जाना जाता है। यूरोप व अमेरिकी बाजारों में बिकने वाले महंगे खिलौनों के अलावा दिवाली में इस्तेमाल होने वाली लक्ष्मी-गणेश जी प्रतिमा हो, या होली की पिचकारियां, सब यहीं बनती हैं, जबकि उन्हें उसका उपयोग भी नहीं पता।
चीनी कंपनियों का निर्माण मुख्य तौर पर बाजार पर आधारित होता है, मतलब, अगर उन्हें पता है कि यह चीज बिक सकती है, तो वह उसे बड़ी संख्या में बनाते हैं, ताकि लागत कम हो सके, और फिर उसे बड़ी संख्या में भेज कर, वहां के स्थानीय उद्योगों को बर्बाद कर देते हैं।
इस प्रक्रिया में, उनके यहाँ मिलने वाला सस्ता कच्चा माल, सस्ते मजदूर, और सरकारी नीतियां उनकी मददगार होती हैं। उदाहरण के तौर पर, इन SEZ में मजदूरों की सैलरी व अन्य मुद्दों पर, सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता, और विदेशी मुद्रा की कीमतों को चीनी सरकार नियंत्रित रखती है। इसके अलावा, चीन में, प्रमुख ब्रांडों की कॉपी या नकली प्रोडक्ट बनाने वालों पर भी कार्यवाही विरले ही होती है। अगर किसी देश ने चीनी खिलौनों पर रोक लगाई, तो उसे हांगकांग का बना हुआ बता कर निकाल दिया जाता है।
इसके विपरीत, भारत में, यह उम्मीद रखी जाती है कि आप अपने पैसे लगाकर फैक्ट्री खोलें, बैंकों से महंगे लोन लेकर, सभी नियमों को मानते हुये, निर्माण करे, और इस प्रक्रिया में अगर कोई चूक होती है, तो पेनल्टी भरें। यहाँ नकली सामान बनाने का तो सवाल ही नहीं है, और डॉलर का भाव अगर एक दिन में 5% भी बदल जाये, तो वह आपको झेलना है। हमारे देश में सरकारी सहयोग सिर्फ बयानबाजी तक सीमित है, और पैकेज के नाम पर बाजार की दरों पर लोन मिलता है, लेकिन आपसे उम्मीदें आसमान छूने की रखी जाती हैं।
अगर सरकार इस दिशा में वास्तव में गंभीर है, तो चीनी खिलौनों पर एंटी-डंपिंग ड्यूटी लगाये, स्थानीय उद्योगों को संरक्षण दे, टैक्स में रिबेट दे, उद्योगों को सस्ते दरों पर लोन उपलब्ध करवाये, और सरकारी स्कूलों, पार्कों तथा अन्य सभी स्थानों पर “सिर्फ भारत मे बने हुये” खिलौनों व अन्य चीजों को खरीदने की नीति बनाये।
इसके अलावा एक्सपोर्ट बढ़ाने हेतु विभिन्न देशों से ट्रेड एग्रीमेंट साइन करने होंगे। विभिन्न संस्थाओं को आगे कर के, चीनी खिलौनों से जुड़े खतरों, जैसे सस्ते केमिकल व पेंट के इस्तेमाल के दुष्परिणामों के बारे में दुनिया को बताना होगा, और बच्चों को इनसे बचाने की मुहिम चलानी होगी। चीन में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन और उनकी फैक्ट्रियों में हो रहे मजदूरों पर अत्याचार की ओर दुनिया का ध्यान खींचना होगा।
दुनिया भर में फैले भारतीय दूतावास अपने हर कार्यक्रम में भारतीय वस्तुओं को गिफ्ट देकर, उनका प्रचार कर सकते हैं। कई अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्थाएं मुफ्त में भारतीय खिलौनों का वितरण कर के उनका प्रचार कर सकती हैं। कोरोना-काल के बाद, चीन से नाराज दुनिया में, इस क्षेत्र में संभावनाएं अपार हैं, लेकिन क्या हमारी सरकार तैयार है?