लाखों शहादत के बदले 15 अगस्त 1947 को भारत माता पराधीनता की बेड़ी से मुक्त हुई। जिसमें जंगल महल के ”भूमिज विद्रोह” के महानायक मुख्य स्वतंत्रता संग्रामी भारत माता के वीर सपूत अमर शहीद गंगानारायण सिंह का नाम भी शामिल है। ”लिख रहा हूँ मैं अंजाम, जिसका कल आगाज आयेगा। मेरे लहू का हर एक कतरा इंकलाब लायेगा।” दिल में ऐसे अरमां लेकर भारत माता के वीर पुत्र गंगानारायण सिंह ने जिसके राज में कभी सूरज नहीं डूबते उस शक्तिशाली शासन व्यवस्था से 1832 ई0 में लोहा लिया और 1857 ई0 के सिपाही विद्रोह इसका संभावित परिणाम के रूप में देखा गया।
गंगानारायण सिंह का जन्म वर्तमान के सरायकेला खरसावां जिला अंतर्गत नीमडीह प्रखंड के बांधडीह गांव में 25 अप्रैल 1790 ई0 में हुआ था। पराधीन भारत के जंगल महल में अंग्रेजी शासन से जनता मर्माहत थे। उस समय देशप्रेमी गंगानारायण ने जंगल महल के बहुसंख्यक भूमिज समुदाय को देशभक्ति के पाठ पढ़ाकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट किया। उन्होंने प्रकृति का लाभ उठाते हुए 1832 ई0 जनवरी माह से अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम का विगुल फूंका। गंगानारायण सिंह ने भूमिज संग्रामियों को गुरिल्ला युद्ध नीति का विशेष प्रशिक्षण दिया। 12 मई 1832 की रात ब्रिटिश सेनापति रासेल की सेनावाहिनी के उपर संग्रामियों ने हमला कर दिया। 13 मई को बराबाजर में अंग्रेज समर्थकों के घर में आग लगाकर आतंक का वातावरण बना दिया। भूमिज सेना के डर से मेदनीपुर के कमिश्नर डी0 ओइली ने अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए कोलकाता हाईकमान से सामरिक वाहिनी का मांग की। इसके बांग्लादेश के फिरंगी सरकार ने बैरकपुर छावनी से कर्नल कपूर के नेतृत्व व रासेल के दिशानिर्देश में जंगल महल में विशाल अंग्रेज सैन्यदल तैनात किया। 2 जून को मार्टिन ने सभी सैन्यवाहिनी के साथ बाँधडीह गांव में गंगनारायन को घेरने का अभियान शुरू किया। 60 भूमिज विद्रोही ने शीतल घटवाल के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना के उपर जोरदार हमला किया। भयभीत होकर मार्टिन ने गंगनारायन से वार्ता का प्रस्ताव भेजा। परंतु गंगा सेना के राष्ट्रभक्त विद्रोहियों ने वार्ता के लिए तैयार नहीं हुए और जंग जारी रखा। इस जंग में 19 अंग्रेजी फौज को मार गिराया गया। विद्रोहियों के उग्र रूप देखकर मार्टिन के सेना इस क्षेत्र से भाग गया। 25 जून को 500 विद्रोहियों के साथ तुलसी दिगार ने पातकुम थाना में हमला किया।
गंगानारायण सिंह को धालभूम, सिंहभूम, पातकुम, मानभूम, शिखरभूम, पंचेत, झालदा, काशीपुर, बाघमुंडी, बामनी, श्यामसुंदरपुर, फुलकुसमा, रानीपुर, काशीपुर, अम्बिकानगर व अमियपुर के राजा-महाराजाओं का समर्थन मिला। जिससे उनके सैन्यशक्ति में वृद्धि हुई। ”भूमिज सेना” ने मेदनीपुर से रामगढ़ व सिंहभूम से धनबाद तक अंग्रेजों के खिलाफ जंग जारी रखा। फुलकुसमा, झालदा, कुइलापाल, शिलदा, छतना, श्यामसुंदरपुर, रायपुर आदि क्षेत्रों में अंग्रेजी रेजिमेंट को धूल चटा दिया। एक विशाल भू-भाग में अंग्रेजी शासन ने नींव नहीं डाल सकी। गंगानारायण सिंह और भूमिज सेना को दमन करने के लिए बांकुड़ा के कलेक्टर रासेल विशाल सेनावाहिनी के साथ जंगल महल में प्रवेश किया। भूमिज सेना ने रासेल के सेना को चारों ओर से घेर कर मार डाला लेकिन रासेल किसी तरह भागने में सफल रहा। इस तरह गंगनारायन सेना निरंतर अंग्रेजों के दांत खट्टे करते रहे। जनवरी 1933 ई0 में कोल विद्रोहियों से सहयोग लेने के लिए गंगनारायन सिंह सिंहभूम रवाना हुए। 7 फरवरी 1833 को गंगा नारायण सिंह कोल (हो) जनजातियों को लेकर खरसावाँ के ठाकुर चेतन सिंह के हिन्दशहर थाने पर हमला किया परन्तु दुर्भाग्यवश जीवन के अंतिम सांस तक अंग्रेजों एवं हुकुमतों के खिलाफ संघर्ष करते हुए उसी दिन वीरगति प्राप्त किए। इस प्रकार 7 फरवरी 1833 ई0 को एक सशक्त, शक्तिशाली योद्धा अंग्रेजों के विरूद्ध लोहा लेने वाला ”भूमिज विद्रोह” के महानायक वीर गंगा नारायण सिंह अपना अमिट छाप छोडकर हमारे बीच अमर हो गए। परंतु आज तक भारत के वीर सपूत गंगनारायन सिंह को स्वतंत्रता सेनानी के राष्ट्रीय स्तर का सरकारी सम्मान नहीं मिला।