सच्चा सेवक घमंड नहीं करता, चुनाव प्रचार पर मोहन भागवत की नसीहत, बोले- काम करें, अहंकार न पालें:चुनाव में मुकाबला जरूरी, लेकिन झूठ पर आधारित न हो

बोले-; संसद में विपक्ष को विरोधी न मानें
नागपुर
ष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत ने चुनाव के दौरान होने वाली बयानबाजी को लेकर बड़ी बात कही है। उन्होंने कहा कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों ने मर्यादा नहीं रखी। नागपुर में हुए आरएसएस के कार्यक्र में उन्होंने कहा, असली जनसेवक वही है जो अहंकार नहीं दिखाता और सार्वजनिक जीवन में काम करते हुए भी मर्यादा बनाए रखता है। उन्होंने कहा, चुनाव संपन्न हो गए, परिणाम और सरकार भी बन गई लेकिन उसकी चर्चा अभी तक चल रही है। जो हुआ वह क्यों हुआ।
RSS चीफ मोहन भागवत सोमवार 10 जून को नागपुर में संघ के कार्यकर्ता विकास वर्ग के समापन में शामिल हुए। यहां भागवत ने चुनाव, राजनीति और राजनीतिक दलों के रवैये पर बात की।
भागवत ने कहा- जो मर्यादा का पालन करते हुए कार्य करता है, गर्व करता है, किन्तु लिप्त नहीं होता, अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों मे सेवक कहलाने का अधिकारी है।
उन्होंने कहा कि जब चुनाव होता है तो मुकाबला जरूरी होता है। इस दौरान दूसरों को पीछे धकेलना भी होता है, लेकिन इसकी एक सीमा होती है। यह मुकाबला झूठ पर आधारित नहीं होना चाहिए।
भागवत ने मणिपुर की स्थिति पर कहा- मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है। बीते 10 साल से राज्य में शांति थी, लेकिन अचानक से वहां गन कल्चर बढ़ गया। जरूरी है कि इस समस्या को प्राथमिकता से सुलझाया जाए।
भावत के भाषण की 9 खास बातें

1. संघ चुनाव नतीजों के एनालिसिस में नहीं उलझता
लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद बाहर का माहौल अलग है। नई सरकार भी बन गई है। ऐसा क्यों हुआ, संघ को इससे मतलब नहीं है। संघ हर चुनाव में जनमत को परिष्कृत करने का काम करता है, इस बार भी किया, लेकिन नतीजों के विश्लेषण में नहीं उलझता।

लोगों ने जनादेश दिया है, सब कुछ उसी के अनुसार होगा। क्यों? कैसे? संघ इसमें नहीं पड़ता। दुनियाभर में समाज में बदलाव आया है, जिससे व्यवस्थागत बदलाव हुए हैं। यही लोकतंत्र का सार है।

2. चुनावी मुकाबला झूठ पर आधारित न हो
जब चुनाव होता है, तो मुकाबला जरूरी होता है, इस दौरान दूसरों को पीछे धकेलना भी होता है, लेकिन इसकी भी एक सीमा होती है – यह मुकाबला झूठ पर आधारित नहीं होना चाहिए। लोग क्यों चुने जाते हैं – संसद में जाने के लिए, विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने के लिए। हमारी परंपरा आम सहमति बनाने की है।

3. संसद में सहमति बनाएं, विपक्ष को विरोधी नहीं, प्रतिपक्ष कहें
संसद में दो पक्ष क्यों होते हैं? ताकि, किसी भी मुद्दे के दोनों पक्षों को संबोधित किया जा सके। किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे ही हर मुद्दे के दो पहलू होते हैं। संसद में दो पक्ष जरूरी हैं। देश चलाने के लिए सहमति जरूरी है। संसद में सहमति से निर्णय लेने के लिए बहुमत का प्रयास किया जाता है, लेकिन हर स्थिति में दोनों पक्ष को मर्यादा का ध्यान रखना होता है। संसद में किसी प्रश्न के दोनों पहलू सामने आएं, इसलिए ऐसी व्यवस्था है। विपक्ष को विरोधी पक्ष की जगह प्रतिपक्ष कहना चाहिए।

4. चुनाव ऐसे लड़ा, जैसे मुकाबला नहीं, युद्ध हो
जो लोग कड़ी प्रतिस्पर्धा के बाद इस दिशा में आगे बढ़े हैं, उनके बीच इस तरह की सहमति बनाना मुश्किल है। इसलिए हमें बहुमत पर निर्भर रहना पड़ता है। पूरी प्रतिस्पर्धा इसी के लिए है, लेकिन इसे ऐसे लड़ा गया, जैसे यह युद्ध हो। जिस तरह से चीजें हुई हैं, जिस तरह से दोनों पक्षों ने कमर कसकर हमला किया है, उससे विभाजन होगा, सामाजिक और मानसिक दरारें बढ़ेंगी।

अनावश्यक रूप से RSS जैसे संगठनों को इसमें शामिल किया गया है। तकनीक का उपयोग करके झूठ फैलाया गया, सरासर झूठ। क्या तकनीक और ज्ञान का मतलब एक ही है?

ऋग्वेद के ऋषियों को मानव मन की समझ थी, इसीलिए उन्होंने स्वीकार किया कि 100 प्रतिशत लोगों की राय एक जैसी नहीं हो सकती, लेकिन इसके बावजूद जब समाज आम सहमति से काम करने का फैसला करता है, तो वह सह-चित्त बन जाता है।

5. मर्यादा का पालन करे, अहंकार न करे, वही सही सेवक
बाहरी विचारधाराओं के साथ समस्या यह है कि वे खुद को सही होने का एकमात्र संरक्षक मानते हैं। भारत में जो धर्म और विचार आए, कुछ लोग अलग-अलग कारणों से उनके अनुयायी बन गए, लेकिन हमारी संस्कृति को इससे कोई समस्या नहीं है। हमें इस मानसिकता से छुटकारा पाना होगा कि सिर्फ हमारा विचार ही सही है, दूसरे का नहीं।

जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए मर्यादा की सीमाओं का पालन करता है, जो अपने काम पर गर्व करता है, फिर भी अनासक्त रहता है, जो अहंकार से रहित होता है – ऐसा व्यक्ति वास्तव में सेवक कहलाने का हकदार है।

6. मणिपुर जल रहा, इस पर कौन ध्यान देगा एक साल से मणिपुर शांति की राह देख रहा है। इससे पहले 10 साल शांत रहा और अब अचानक जो कलह वहां पर उपजी या उपजाई गई, उसकी आग में मणिपुर अभी तक जल रहा है, त्राहि-त्राहि कर रहा है। इस पर कौन ध्यान देगा? प्राथमिकता देकर उसका विचार करना यह कर्तव्य है। मणिपुर हिंसा में 200 से ज्यादा मौतें हुई हैं और 50 हजार लोग राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं।

7. भारत ही चुनौतियों का समाधान दे सकता है
डॉ. अंबेडकर ने भी कहा है कि किसी भी बड़े परिवर्तन के लिए आध्यात्मिक कायाकल्प आवश्यक है। हजारों वर्षों के भेदभावपूर्ण व्यवहार के परिणामस्वरूप विभाजन हुआ है, यहां तक कि किसी प्रकार का गुस्सा भी।

हमने अर्थव्यवस्था, रक्षा, खेल, संस्कृति, प्रौद्योगिकी जैसे कई क्षेत्रों में प्रगति की है। इसका मतलब यह नहीं है कि हमने सभी चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर ली है।

पूरा विश्व चुनौतियों से मुक्ति के लिए किसी न किसी रूप में प्रयास कर रहा है और भारत ही इसका समाधान दे सकता है। अपने समाज को इसके लिए तैयार करने के लिए स्वयंसेवक संघ शाखा में आते हैं।

8. बाहर से आई विचारधारा में सिर्फ वे ही सही, बाकी गलत
हजारों वर्षों से जो पाप हमने किया, उसको साफ करना पड़ेगा। ऐसे ही आपस में मिलना-जुलना है। भारतोद्भव जो लोग हैं, उनसे मिलना आसान है, क्योंकि एक ही बुनियाद है। वही यम नियमात्मक आचरण का पुरस्कार सर्वत्र है। और एक से सब निकला है। एकम सत् विप्रा बहुधा वदंति…।

रोटी-बेटी सब प्रकार के व्यवहार होने दो, लेकिन जो बाहर की विचारधारा आई हैं, यह उनकी प्रकृति ऐसी थी। हम ही सही, बाकी सब गलत। अब उसको ठीक करना पड़ेगा, क्योंकि वह आध्यात्मिक नहीं है। इन विचारधाराओं में जो अध्यात्म है, उसको पकड़ना पड़ेगा।

पैगंबर साहब का इस्लाम क्या है, ये सोचना पड़ेगा। ईसा मसीह की ईसाइयत क्या है, सोचना पड़ेगा। भगवान ने सबको बनाया है। भगवान की बनाई जो कायनात है, उसके प्रति अपनी भावना क्या होनी चाहिए, सोचना पड़ेगा।

9. बाहर के विचार हमारे यहां रह गए, इससे फर्क नहीं पड़ता
समाज में एकता चाहिए, लेकिन अन्याय होता रहा है, इसलिए आपस में दूरी है। मन में अविश्वास है, हजारों वर्षों का काम होने के कारण चिढ़ भी है। अपने देश में बाहर से आक्रांता आए, आते समय अपना तत्वज्ञान भी लेकर आए। यहां के कुछ लोग विभिन्न कारणों से उनके विचारों के अनुयायी बन गए, ठीक है।

अब वे लोग चले गए, उनके विचार रह गए। उनको मानने वाले रह गए। विचार वहां के (बाहर के) हैं तो यहां की परंपरा को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाहर के विचारों में जो हम ही सही, बाकी सब गलत है, उसको छोड़ो। मतांतरण वगैरह करने की जरूरत नहीं है। सब मत (धर्म) सही हैं, सब समान हैं तो फिर अपने मत पर ही रहना ठीक है। दूसरों के मत का भी उतना ही सम्मान करो।

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