खेलें मसाने में होली दिगंबर… शिव-पार्वती के बीच का वो संवाद, जिसमें छिपा है रंगों के त्योहार का असली अर्थ

नई दिल्ली,14 मार्च 2025,
कैलाश पर ध्यान में बैठे महादेव के मुख पर असीम संतोष और होठों पर फैली दिव्य मुस्कान को देखकर देवी पार्वती ने पूछा- ‘स्वामी! ये कौन सा आनंद है जो त्रिलोक में सिर्फ आपके ही हिस्से में आया है. आप ध्यान में हैं, फिर भी मुस्कुरा रहे हैं. आपके चेहरे पर न कोई लालसा है और न ही कोई इच्छा. बस ऐसा है कि आपने सबकुछ पा लिया है. इस आनंद का रहस्य क्या है? क्या यही आनंद धरती पर रहने वालों के नसीब में भी है?

अपनी पत्नी पार्वती के इतने सारे प्रश्नों को एक साथ सुनकर शिवजी ने आंखें खोल दीं और उसी मुस्कान के साथ बोले- देवी, आपने जो आनंद का प्रश्न पूछा है तो इसकी एक कथा सुनाता हूं, वो सुनिए. शिवजी कथा कहने लगे.

शिवजी ने सुनाई अपनी रामकथा
मैं मंदिर में बैठकर राम-राम जप रहा था, दिन चढ़ा, शाम ढली, रात आई प्रभु के शयन का समय हो गया. पुजारी ने कहा- अब राम जी विश्राम करेंगे और कहकर मंदिर बंद कर दिया. मैं राम की खोज में फिर से भटकने लगा. गंगा किनारे यूं ही बैठा रहा. सुबह हुई, देखता हूं कि एक अर्थी चली जा रही है. उसमें शामिल लोग कहते जा रहे हैं राम नाम सत्य है. मैं इस रामधुन को सुनकर पीछे-पीछे चलने लगा और पहुंच गया श्मशान घाट.

वहां क्या देखता हूं कि जो राम घर में नहीं हैं, मंदिर में नहीं हैं. जंगल-पर्वत और नदी-सागर में नहीं हैं, वो राम तो श्मशान में चारों ओर हैं. राख की ढेरी के नीचे. उसके ऊपर जल रही चिता की अग्नि में. भस्म हो रही देह में, वहां तो राम का नाम ऐसा बिखरा पड़ा मिला कि फिर मुझे कहीं जाने की जरूरत ही नहीं पड़ी. मैं तो समा गया उसी राख और उसी ढेरी में. अपना घर ही बना लिया. मैं वैसे भी अनिकेत (बिना घर का व्यक्ति) था और फिर श्मशान ही मेरा घर हो गया.

श्मशान होली

शिव शंकर कैसे बन गए श्माशान महादेव?

मैंने राख मल ली है और जीवन के रहस्य को समझ चुका हूं कि इसका असली रंग यही राख है. यही राख मृत्यु है, मुक्ति है, मोक्ष है और इसी से नया द्वार भी खुलता है, यही चेतना है और यही चिंतन भी है. मैंने इस एक राख की सफेदी में सारे रंग पा लिए हैं और यही मेरे आनंद की वजह भी है.

रही बात धरती के लोगों के आनंद की, तो उनके लिए तो यह आनंद रोज की बात है. वह मगन हैं, धरती का आदमी जो रोज कुआं खोद रहा है और रोज पानी पी रहा है, जिसके हिस्से संघर्ष ही संघर्ष आया है, जो चमत्कारों और दैवीय शक्तियों से कोसों दूर है, जो रोज जन्म का उत्सव और मृत्यु का शोक मनाता है और फिर अपनी धुन में रम जाता है. उसके लिए तो सब आनंद ही आनंद है.
शिव बोले- असल बात तो यह है कि देवता ही उनके सुख से वंचित हैं. आम आदमी का सुख तो उसके घर में हैं, माता-पिता के आशीर्वाद में है. पत्नी के प्रेम में है. बच्चों के संतोष और सम्मान में है, दोस्तों-यारों के साथ में है और दफ्तर कार्य-व्यवहार में है. कभी-कभी तो सोचता हूं कि मैं शिव हूं या ये धरती के प्राणी शिव हैं. जो सारा विष पीकर भी आनंद में हैं, परमानंद में है. मेरी मुस्कान का रहस्य यही है, मैं इनके साथ मिलकर खुद एकाकार हो जाता हूं. रंग, राख-भस्म में लिपट कर इन्हीं के जैसा हो जाता हूं, तभी तो मैं इस होली के हुड़दंग के बीच अपनी अनोखी ही होली खेलता हूं.

होली को दो स्वरूप
श्मसान वाली होली… देवी पार्वती कहने लगीं, इसे और विस्तार से समझाइए, स्वामी… शिव बोले- हे प्रिया, देखो! वैसे तो सभी उत्सवों के आध्यात्म का पक्ष बहुत ही सूक्ष्मता के साथ बेहद विस्तृत है, लेकिन होली के पर्व की व्याख्या कर पाना और भी अधिक कठिन है. यह ऐसा ही कि जैसे अमृत की खोज में सागर मंथन करते जाइए और हर बार एक नया ही रत्न हाथ लगता है. फिर भी होली के रंग दो दिव्य धाराओं से होकर बिखरते हैं. एक तो परब्रह्म के मानवी स्वरूप में.

लोक में होली का यह रूप राधा-कृष्ण का है. एक-दूसरे में रंगा हुआ. जहां राधा खुद रंग हैं और श्याम उनमें रंगा चेहरा. जहां पर्वत के पत्थर भी श्याम हैं और यमुना के धारा से लेकर ओस की बूंद तक राधा हैं.

दूसरी धारा खुद मेरी ही बनाई हुई है. मैं श्मशान में बैठा हूं मुस्कुरा रहा हूं.शांत चित्त होकर. त्रिशूल और वासुकि को मैंने अलग रख दिया है, गंगा की बहती अविरल धारा को फिर से जटाजूट में बांध लिया है. फिर में त्रिभंगी मुद्रा में आ जाता हूं. मैं अपना हाथ उठाता हूं और धरती के समानांतर लाकर रोक लेता हूं. फिर धीरे-धीरे हाथों को हृदय की ओर लाता हूं. बाएं पैर को दाहिने जांघ पर रखकर जिस मुद्रा में आता हूं, यह मुद्रा आत्माओं के जागरण की है. मैं, शिव संसार की सभी आत्माओं की ज्योति हूं. ज्योति स्वरूप हूं. मेरी यह नटराज मुद्रा कहती है कि यह जागृति का काल है. खुद को बदलाव के लिए तैयार करने का समय है. जागृति… यह शब्द सुनकर आत्माएं उल्लास से भर जाती है.

आत्मा के उल्लास का पर्व है होली

अब अपना उल्लास वह कैसे मनाएं? इसका गान कैसे करें. तब मैं शिव सामने जल रही चिता से राख उठाता हूं और हवा में उछाल देता हूं. मैं भूतों का भगवान खुद को राख में लपेट लिया है और अब हर गण-प्रेत सभी इसी राख में रंगकर अवधूत बन गए हैं. यही तो होली है. जहां भक्त भी भगवान है और भगवान भी उन्हीं के जैसा है. उनके साथ उनके बीच. यह वसंत का समय है और आत्माएं चेतना का आनंद ले रही हैं. शिव कहते हैं, वह देखिए, संसार में आत्माएं होली खेल रही हैं.

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