रांची ,19 जनवरी (ईएमएस) केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा है कि देश के सभी 19 आदिवासी शोध संस्थानों (टीआरआइ) में आदिवासी जीवन पद्धति व विकास को लेकर शोध कार्य होने चाहिए, ताकि आदिवासी परंपरा, विचारों व पुरानी पद्धति पर विस्तृत अध्ययन हो सके। वे रविवार को ऑड्रे हाउस में आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दर्शन के समापन समारोह को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज का जीवन पद्धति प्रकृति के अनुरूप जीवन-यापन का है।
यहां प्रकृति को सहचर मानने की परंपरा है, अनुचर नहीं। आज प्रकृति संरक्षण के लिए कानून बनाने पड़ते हैं। आदिवासी परंपरा प्रकृति की बुनियाद पर टिका है। उन्होंने कहा कि देश-दुनिया में विभिन्न जनजातियों के अलग-अलग धर्म हो सकते हैं लेकिन चरित्र के मामले में काफी समानता देखने को मिलती है। आदिवासियों की चारित्रिक विशेषता उनके दर्शन से दृष्टिगोचर होता है।
आदिवासियों की विश्वसनीयता की कसौटी इसी दर्शन पर कसा है। अर्जुन मुंडा ने कहा कि आदिवासियों के विषय में प्रचलित मत है कि ये बाकी लोगों से अलग रहना पसंद करते हैं। कम बोलते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है। आदिवासी जीवन बनावटी नहीं है। पूर्णत: प्राकृतिक है। व्यक्ति से ही नहीं, आदिवासी पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-झरना से भी बातें किया करते हैं। आदिवासी बाहर के बजाय अंदर से अधिक जागा हुआ है, इसलिए कम बोलते हैं। यह उनकी सहजता है।
उन्होंने कहा कि आदिवासियों की सहजता को कई लोग उसकी कमजोरी समझते हैं। अपने उद्बोधन के अंत में उन्होंने कहा कि प्रगति की चाहत आसमान छूने की भले हो, परंतु पांव जमीं पर होना चाहिए। मौके पर मुख्य रूप से कल्याण विभाग की सचिव हिमानी पांडेय, टीआरआइ के निदेशक रनेंद्र कुमार, जेवियर कॉलेज के प्राचार्य प्रो संतोष किड़ो, फिल्म निर्माता मेघनाद सहित कई प्रोफेसर, अधिकारी उपस्थित थे।
जीवन, आत्मा व मृत्यु पर हुई चर्चा
सेमिनार के अंतिम दिन आत्मा, मृत्यु, मृत्यु के बाद का जीवन, स्वर्ण-नरक एवं पाप-पुण्य विषय पर चर्चा की गई। राम प्रसाद सरदार ने बांग्लादेश में रहने वाले मुंडा समाज के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त किए। कहा कि झारखंड से बांग्लादेश गए लोगों को आदिवासी होने की स्वीकृति नहीं मिली। अर्जुन राथवा ने कहा कि जब अधिक यर्थाथवादी होने के लिए धर्म शब्द का उपयोग किया जाता है तो मैं उन लोगों के समूह से जुड़ा होता हूं जो मानवता के अध्यात्मिक पहुलओं के बजाय स्वयं के साथ खुद को पहचानते हैं जो शायद नजरअंदाज हो गए हैं।
प्रकृति द्वारा अलगाव अक्सर इसे विकसित करने और प्रसार का विस्तार करने की कोशिश करता है और शायद इसकी ये घटनाएं धर्मों और धार्मिक संप्रदायों के बीच तनाव का कारण बन सकता है। डॉ. हरि उरांव ने उरांव जनजाति के संदर्भ में मृत्यु के बाद आत्मा की परिकल्पना का वर्णन किया। कहा कि मृत्यु के समय जब व्यक्ति तकलीफ में होता है तब अपने लोगों के आसपास रहने से उसे शांति मिलती है। मृत्यु के बाद रीति-रिवाज को संपन्न कर मृत आत्मा को पुकारा जाता है और उसे घर में प्रवेश कराया जाता है।
पूर्वजों की आत्मा के लिए प्रतिदिन खाने के पहले कुछ अन्न दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि पूर्वज की आत्मा घर में ही निवास करती है। डॉ. जमुना बीनी ने अरुणाचल प्रदेश के निशि आदिवासी समुदाय के बीच मृत्यु संस्कार की चर्चा की। इनके अनुसार मृत्यु के बाद मानव मृत्यु के संसार में चले जाते हैं। विश्वास है कि तीन दिन बाद मृतक की आत्मा घर में प्रवेश करती है। इसके अलावा डॉ. नीतिशा खलखो, जगन्नाथ गोंड, युगोश्वर असुर, दीपावली कुरमी राम प्रसाद सरदार, सुनील कुमार, डॉ. बुद्धा ने अपने विचार व्यक्त किए।