133 वर्ष पुराना है इतिहास ********
दुमका, जिले के मयुराक्षी नदी के तट पर प्रकृति के गोद में राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव का आगाज परंपरागत रूप से शुक्रवार से शुरू हो गया , सात दिनों तक चलने वाले इस मेले को लेकर कई भ्रान्तियाँ है .इसे अन्धविश्वास माने या फिर हकीकत। कहा जाता है कि जो भी इस मेले का उद्घाटन करते है तो उसकी सत्ता या कुर्सी चली जाती है और यही वजह है कि इस मेले का उद्घाटन ना कभी मन्त्री करते है और ना कभी जिला प्रशासन के अधिकारी। ऐसे मे इस मेले का उद्घाटन ग्राम प्रधान से कराकर इस दंश से बचकर अपनी पीठ भी थपथपा लेते है। जबकि यह जनजातीय मेला राजकीय दर्जा प्राप्त है।
दुमका के मयूराक्षी नदी के किनारे प्रकृति के गोद में बसा राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के लिए उद्घाटन एक अभिशाप की तरह बन कर रह गया है इसलिए इस मेले को उद्घाटन करने से पहले सौ बार सोचते है उन्हे इस बात से ज्यादा चिन्ता रहती है कि इस मेले के उद्घाटन का फीता जैसे कटा वैसे ही इनकी सत्ता की कुर्सी भी चली जायेगी। यहि बजह है कि कोई भी पदाधिकारी या जनप्रतिनिधि इस मेले का उद्घाटन नही कर करते ।इसका जिम्मा ग्राम प्रधान पर छोड देते है। तमाम अधिकारी भी मौजुद है लेकिन कोई भी इस मेले का उद्घाटन करना नही चाह्ते।
एक सप्ताह तक चलने वाला इस जनजातीय मेला का आरम्भ 1890 में संथाल परगना के डिप्टी ब्रिटिश कमिश्नर आर कस्टेयर्स ने किया था ।133 साल पुराने इस जनजातीय मेला के सबंध में कहा जाता है कि 1855 हुये में संथाल हुल क्रांति के बाद कस्टेयर्स ने आदिवासियों से खोयी हुई विश्वास और ब्रिटिश हुकूमत के प्रति बढ़ी दूरियों को मिटाने के लिए इस मेले की शुरुआत की थी. पहले यह मेला जनजातीय हिजला मेला के नाम से जाना जाता था बाद में झारखण्ड सरकार ने इस मेला को राजकीय दर्जा देकर मेला को गौरव और इसकी विशेषता को सामने लाने की कोशिश की .लेकिन कहा जाता है अविभाजित बिहार के समय इस मेले का उद्घाटन एक मुख्यमन्त्री ने की थी जहाँ उसकी सत्ता चली गई वही झारखण्ड बनने के बाद इस मेले का उद्घाटन राज्य के मन्त्री ने की तो उसकी कुर्सी गई तो फिर दोबारा नही मिली। यही बजह है कि फिर कोई दुबारा इस मेले के उद्घाटन करने का जहमत नही उठाया।