नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि काव्य-संग्रह में गीतांजलि नं० ५० एक कविता है जिसमें एक भिखारी झोला लिए अपनी दीनहीन अवस्था पर चिरमग्न विचार करते चला जा रहा है। दूर क्षितिज पर कुछ चमत्कारी रोशनी दिखाई पड़ती है। उसे आश्चर्य होता है। ऐसी सुनहली मनमोहक रोशनी तो केवल ईश्वर की ही हो सकती है। पर मेरी ऐसी किस्मत कहाँ कि ईश्वर दर्शन दे और मैं उनसे वरदान माँग सकूं। भिखारी उस समय अचरज में पड़ जाता है, जब सामने सचमुच भगवान को खड़े पाता है। कई घाड़ों वाले रथ पर आसीन ईश्वर भिखारी के सामने रथ रोक देते हैं। रथ से उतर कर अपना हाथ भिखारी के सामने फैलाते हैं। यह क्या ? माँगना तो मुझे था, वह भी इतना कि सात पुश्त बैठ कर खायें, तब भी खजाना खाली ना हो। पर यहाँ तो ईश्वर ही भिखारी बने खड़े हैं।
भिखारी बहुत तकलीफ से मन-मसोस कर झोला से चावल का एक दाना ईश्वर के हाथ पर रख देता है। भगवान मुस्कुराते हैं। रथ पर बैठ कर लौट जाते हैं। घर पहुँच कर रोज की तरह भिखारी अपना झोला पलट देता है। उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता जब चावल के ढेर में एक चमकता सुनहरा सोने का दाना दिखाई पड़ता है।
अब भिखारी खुश होने के बजाय रोने लगता है। काश! उसे पक्का विश्वास होता कि वह भगवान ही हैं तो एक दाना ना देकर अपना झोला ही दे देता। आज भिखारी के बजाय वह मालामाल हो गया होता। उसे अपनी करनी पर कोई पश्चाताप नहीं था कि उसका लालची मन केवल मांगना जानता है, देना नहीं।
कवि रविन्द्रनाथ इस छोटी सी काल्पनिक घटना का उल्लेख कर मनुष्य जाति के स्वार्थी और लालची स्वभाव पर कुठाराघात करते हैं। सचमुच, यह हमारा स्वभाव बन गया है। सुबह उठने के साथ ही ईश्वर से मांगना शुरू कर देते हैं। हम सब एक भिखारी ही तो हैं।
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। स्थान था, राजस्थान के माउण्ट आबू स्थित ब्रह्माकुमारी संस्था ’मधुवन।‘ उपलक्ष्य था दीक्षांत समारोह। तमिलनाडु स्थित अन्नामलई यूनिवर्सिटीज और ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में मुझे ’मूल्य शिक्षा एवं आध्यात्मिकता‘ पर मास्टर्स डिग्री करने का अवसर प्राप्त हुआ। दीक्षांत समारोह में अकेले जाना था पर साहस नहीं जुटा पा रही थी कि बेटे जीवेश ने साथ दिया और हमलोग जून महीने के पहले सप्ताह में माउण्ट आबू पहुँच गए। वहाँ हमारा आठ दिनों का प्रवास था।
माउण्ट आबू स्थित ’मधुवन‘ में आम से भरे पेड़ों की संख्या बहुत थी। आम अभी पकना शुरू हुआ था। जामुन तो पक कर नीचे गिरता रहता था। अमृतवेला में आते-जाते मार्ग पर जामुन मिल जाता था। मेरा काम था आते समय घास पर गिरे जामुन को चुनना। पता नहीं ऐसी इच्छा क्यों हुई कि ’बाबा‘ जामुन तो आपने खिला दिया, आम नहीं मिला। मेरी कल्पना में ऐसा दृश्य उभरा कि अमृतवेला में मैं जा रही हूँ, अचानक मेरे सामने आम गिरता है। बचपन में आम चुनने की जो खुशी मिलती थी, वो भी यहाँ पूरी हो जाती।
प्रवास का अंतिम दिन था। रात आठ बजे वापसी के लिए मधुवन से निकलना था। दोपहर में भोजन के उपरान्त मनमोहिनी कॉम्प्लेक्स लौट रही थी। मेरे साथ जमशेदपुर से ग्रेजुएट कॉलेज से मास्टर्स कर रही अदिति भी थी। जामुन देखकर वह रूक गयी और चुनने लगी। फिर बोली ’आंटी इसे धोकर लाते हैं।‘ जामुन पेड़ के साथ वहाँ आम के भी एक-दो पेड़ थे। मैं आसमान की तरफ देखकर मन ही मन बोली कि ’बाबा आज तो वापस जा रहे हैं, पर आम नहीं मिला। अभी यह विचार समाप्त भी नहीं हुआ था कि ख$ड़-खड़ की आवाज के साथ एक आम गिर प$डा। आम मुझसे एक हाथ की दूरी पर गिरा। दक्षिण भारत से आया एक दल वहाँ से गुजर रहा था। एक बहन आम उठाती है। पर मेरे मुँह से निकल जाता है ’आम तो हम बाबा से मांग रहे थे।‘ वह पता नहीं हिन्दी समझी भी या नहीं, पर सीधे मुस्कुराती हुई वह आम मेरे हाथ पर रख दी। मैं पीछे हट गयी। आम तो उसके सर के पास गिरा था। मैं बोली ’नहीं यह आपका है।‘ वह बोली ’आप ज्यादा खुश होगा।‘ निर्विकार भाव से बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा के आगे बढ गयी। अदिति आकर बोली ’आप तो यही चाहती थीें आंटी, रख लीजिए।‘
जमशेदपुर लौटने पर जब अपना अनुभव ’मुरली‘ ऑनलाइन ग्रुप में साझा कर रही थी तो सबसे अंतिम में मैंने इस घटना का जिक्र किया। मुझे पता था कि यह मेरी व्यक्तिगत खुशी थी। खुशी का मापदण्ड सबके लिए अलग-अलग होता है। पर जया दीदी, जो ’मुरली‘ सुनाती हैं, बोली ’हाँ, वहाँ जो भी जाता है उसकी कोई ना कोई इच्छा बाबा पूरी करते हैं।‘
मुझे यह सत्य पता नहीं था। अचानक मेरी खुशी पश्चाताप में बदलने लगती है। काश! यह बात पहले पता रहती तो ’आम‘ ना मांगकर कोई बड़ी चीज मांगती। क्या मांगती वो पता नहीं, परंतु ’आम‘ तो हरगिज नहीं मांगती। धन्यवाद मेरी उस शिक्षा का जिसमें मुझे अभी डिग्री प्राप्त हुई है ’आईना‘ दिखाने में सक्षम रहा। मैं भी कितनी जल्दी भिखारी बन गयी। गीतांजलि नं० ५० के भिखारी और मुझमें कोई अंतर नहीं था। मेरे विचार और उसके विचार एक ही तो थे।
मधुवन सचमुच इस धरती का स्वर्ग है। वहाँ जो जाता है, उसे वापस आने की इच्छा नहीं होती। शुद्घता एवं पवित्रता से बनाया गया शुद्घ भोजन सबसे अधिक आकर्षित करता है। यहाँ रसोई में वैसे भाई-बहन सेवाएँ देते हैं जो बहुत पवित्र होते हैं। आम गृहस्थ रसोई में प्रवेश नहीं कर सकते। थाली सुखाकर, पोछकर दिया जाता है। खाने के बाद अपना बत्र्तन स्वयं साफ करना पड़ता है। धोने से पहले अपना जूठन एक प्लास्टिक के बड़े बाल्टी में चम्मच से डालना पड़ता है। बत्र्तन धोने के लिए चारों तरफ नल और बेसिन लगे हुए हंै। सीमेन्टेड बेसिन इतना गहरा है कि पानी के छींटे से शरीर गंदा नहीं होता है। धोया बत्र्तन ’एस्टे्रलाइज‘ होने के लिए बड़े कंटेनर में लिफ्ट से ऊपर चला जाता है। जूठन वाली बाल्टी को एक प्रहर के भोजन के बाद हटा दिया जाता है। भोजनालय में साफ-सफाई का ऐसा स्तर है कि एक मक्खी नहीं मिलेगी। रोजाना आठ-दस हजार लोग भोजन करते हंै। पर सीट के लिए किसी को इंतजार नहीं करना प$डता और ना ही बत्र्तन साफ करने के लिए कतार में खड़ होना पड़ता है। ’बाबा मिलन‘ के समय यह संख्या ३० से ३२ हजार पहुँच जाती है।
आश्चर्य की बात यह है कि उस दुर्गम पहा$डी क्षेत्र में आठ दिनों में एक भी मच्छर नहीं मिला। कहीं भी ध्यान में बैठ जाएँ। पार्क, बेंच, पेड़ के नीचे मच्छर, कीड़ा-मकौड़ा कुछ भी आपको परेशान नहीं करेगा। ऐसा भी नहीं है कि सारा दिन झाड़ू लग रहा है या मच्छर के लिए धुआँ गाड़ी घूम रही है और कोई सुपरवाइजर खड़ा होकर सारी व्यवस्थाएँ देख रहा है। देश के सभी प्रांत से लोग आते हैं। बिना हल्ला-गुल्ला के चुपचाप सब अपनी सेवाएँ देते हैं। यहाँ तक कि सार्वजनिक शौचालय भी साफ-सुथरा और दुरूस्त मिला।
भोज्य पदार्थ, बिजली, पानी के मामले में मधुबन पूरी तरह आत्मनिर्भर है। दुर्गम पहाडी़ पर रहते हुए भी न पानी का संकट है और ना भोजन की कमी। अधिकांश भोज्य पदार्थ फल, फूल, सब्जी स्वयं की खेती से प्राप्त होते हैं, वह भी आर्गेनिक। सौर्य ऊर्जा से रसोई की मशीनें एवं बल्ब जलते हैं। रात के समय मधुबन इतना प्रकाशमय रहता है कि अंधेरे का एहसास ही नहीं होता। सब्जी, राशन छोटा ट्रक से आता है। सीधे लिफ्ट में समा कर ऊपर तल्ले पर चला जाता है। गौशाला बहुत बड़ा है, जहाँ से बिना मिलावट दूध प्राप्त होता है।
मधुबन में ’अमृतबेला‘ करना और डायमंड हॉल मे दीदियों से ’मुरली‘ सुनना मेरे लिए सपने जैसा था। ’अमृतबेला‘ सुबह साढे तीन बजे से शुरू होती है। एक दिन पता नहीं दीवार की घड़ी की सुई कुछ इस तरह दिखी या मेरा अति उत्साह मन था कि रात दो बजे ही मैं ’अमृतबेला‘ के लिए तैयार हो गयी। लिफ्ट मैन २४ घंटे ड्यूटी पर रहते हैं। नीचे आने पर पता चला कि थोड़ा जल्दी ही आना हो गया। पर कमरे में वापस जाने की इच्छा नहीं थी। वहाँ इतनी मीठी हवा चलती है कि उसकी मिठास का वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं है। ध्यान के लिए थोड़ी-थोड़ी दूर पर बाबा का कमरा बना हुआ था जहाँ हमेशा ए० सी० चलता रहता है। पर मुझे शांतिवन में स्थित दादियों का शक्ति स्थल जाना था। वहाँ मीठी हवा में घास पर बैठ कर मेडिटेशन करने का मन था। सो मैं चल दी। दूर एक बहन झूला पर बैठी दिखी। वहाँ सभी भाई-बहन सफेद वस्त्र में रहते हंै। रात दो बजे झूला-झूलते सफेद वस्त्र में, यह दृश्य कहीं और का होता तो निश्चित रूप से मेरा हार्ट-फेल हो जाता, पर मुझे भय नहीं लगा। हम सिर्फ दो बहनों को वाहन से शांतिवन पहुँचा दिया गया। यहाँ उल्लेख योग्य बात यह है कि पूरे देश से भाई-बहन अपनी सुविधानुसार एक महीने के लिए सेवा देने आते हैं। वाहन भी ऐसे ही सेवाधारी भाई लोग चलाते हैं। सभी सम्पन्न परिवार के हंै। मगर रात दो बजे से सेवा देने के लिए तत्पर हो जाते हंै। बहनों की संख्या के अनुसार वाहन निकाला जाता है। बोलेरो, जीप, बस। सभी वाहन सफेद रंग के होते हैं।
मैं शांतिवन पहुँच जाती हूँ। मुझे लगा आज मैं बहुत पहले आ गयी हूँ। बाबा के कमरे में गयी तो वहाँ पहले से लगभग २०० भाई-बहन ध्यान में बैठे मिले। उन्हें देखकर मेरा जल्दी आने का गुमान टूट गया। शक्तिस्थल पर भी भाई-बहन बैठे मिले। भोर में हरियाली के बीच सफेद वस्त्रों में ध्यान में भाई-बहन बैठे रहते है। ऐसा लगता है जैसे हरी घास में मोती बिखरे पड़े हंै। बड़ा अद्भुत नजारा होता है।
वापस आने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी। स्वर्ग छोडक़र कोई आ भी कैसे सकता है ? जब मैं यहाँ और
मधुबन की तुलना करती हूँ तो मुझे कितना अन्तर दिखाई प$डता है। राजस्थान जैसे गर्म रेगिस्तानी जगह पर स्थित मधुबन में जल की कोई कमी नहीं। हमारे यहाँ नदी रहते हुए भी पानी का संकट। वहाँ दुर्गम पहाड़ पर २४ घंटा बिजली और इंटरनेट की व्यवस्था। यहाँ आज भी बिजली की व्यवस्था सही नहीं है। खाद्य पदार्थ के मामले में तो जमीन आसमान का फर्क नजर आता है। समझिए दूध-दही की नदियाँ बहती है। तीनों समय भोजन के साथ छाछ मिलता है, वह भी जितना चाहे, उतना लो। चाय, कॉफी, दूध हमेशा उपलब्ध। दूध, दही से बनी सब्जियों की प्रधानता। यहाँ खाद से युक्त हरी सब्जी और मिलावटी दूध पीकर धीरे-धीरे हमारा शरीर जहरीला होता जा रहा है।
पवित्रता एवं ध्यान की ताकत का ही असर है कि बहनें हम आमलोगों से अलग दिखती हंै। स्वच्छ सफेद वस्त्र में देवी जैसी प्रतीत होती हंै। उनके चेहरे पर इतना तेज होता है कि लाख रुपये की बनारसी में लिपटा हमारा शरीर फीका पड़ जाए। साफ-सफाई, ईमानदारी, पवित्रता और आध्यात्मिकता के चलते मधुबन सचमुच स्वर्ग जैसा प्रतीत होता है।