चाकुलिया /
दिवाली के दूसरे दिन जब शेष भारत गोवर्धन पूजा करता है, उसी दिन से आदिवासियों का सोहराय पर्व प्रारंभ हो जाता है. पांच दिनों तक चलने वाले इस पर्व का संबंध सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है. आदिवासी समाज के इस महान पर्व को लेकर झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा आदि राज्यों में बहुत पहले से तैयारी प्रारंभ हो जाती है. जनजातीय समाज में इस पर्व का बेहद महत्व है. जनजातीय समाज इस पर्व को उत्सव की तरह मनाता है। आदिवासी समाज की संस्कृति काफी रोचक है. शांत चित्त स्वभाव के लिए जाना जाने वाला आदिवासी समुदाय मूलतः प्रकृति पूजक है. आदिवासियों में सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा भी काफी रोचक है. इसकी कथा सृष्टि की उपत्ति से जुड़ी हुई है. आदिवासी समाज में प्रचलित कथा के अनुसार, जब मंचपुरी अर्थात मृत्यु लोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी. उस काल खंड में पशुओं का सृजन स्वर्ग लोक में होता था. मानव जाति की इस मांग पर मरांगबुरु अर्थात आदिवासियों के सबसे प्रभावशाली देवता है. जन जातीय समाज में मरांगबुरू का स्थान शिव से भी उपर है. जनजातीय कथा के अनुसार, मरांगबुरू स्वर्ग पहुंचे और अयनी, बयनी, सुगी, सावली, करी, कपिल आदि गाएं एवं सिरे रे वरदा बैल से मृत्यु लोक में चलने का आग्रह करते हैं. मरांगबुरू के कहने पर भी ये दिव्य जानवर मंचपुरी आने से मना कर देते हैं तब मरांगबुरू उन्हें कहते हैं कि मंचपुरी में मानव युगोंं-युगोंं तक तुम्हारी पूजा करेगा तब वे दिव्य, स्वर्ग वाले जानवर मंचपुरी आने के लिए राजी होकर धरती पर आते हैं और उनके आगमन से ही इस त्योहार का प्रचलन प्रारंभ होता है. जाहिर है उसी गाय-बैल की पूजा के साथ सोहराय पर्व की शुरुआत हुई है. पर्व में गाय-बैल की पूजा आदिवासी समाज काफी उत्साह से करते हैं.