बिहार को एक बार फिर जाति की आग में झोंकने की तैयारी कर ली गई है।बिहार की राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही चलती है। बिहार को भले देश का राजनीतिक रूप से सबसे सक्रिय प्रदेशों में गिना जाता हो लेकिन हकीकत है कि यहां के नेता जात पात के नाम पर ही वोट बटोरते हैं। लोगों की मानसिकता भी कुछ ऐसी ही है कि वह जात पात को ही सर्वोपरि मानते हैं। बिहार में जातीय आधार पर जनगणना की सर्वदलीय बैठक में सर्वसम्मति से जो निर्णय लिया है गया है वह इसी का परिणाम है। देश का यह इकलौता ऐसा प्रदेश है जहां जात पात के नाम पर ऐसा किया जा रहा है। एक ओर तो बिहार में प्रतिभाओं की कमी नहीं है अभी यूपीएससी के जो परिणाम आए हैं उसमें एक बार फिर बिहार के होनहारों ने अपना परचम लहराया है। अभी बिहार के नेता जातीय जनगणना के नाम पर एक हो गए हैं। कितनी बड़ी विडंबना है कि बिहार में निवेश, शिक्षा, आधारभूत सुविधाएं बढ़ाने के नाम पर कभी ये नेता एक मंच पर कभी नहीं आये। इसकी जरुरत भी किसी ने नहीं समझी। अब एक बार फिर से बिहार 1990 वाली स्थिति में जाने जा रहा है। उस समय मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद अचानक कई जातीय क्षत्रप पैदा हो गए थे । अपनी अपनी जाति का ठेका लेकर नेतागिरी चमकाने लगे।जाति का कितना विकास हुआ यह बताने की जरुरत नहीँ। यदि विकास हो गया होता तो आज जाति के आधार पर शक्तिपरीक्षण करने की जरुरत नहीं होती अब एक बार फिर जब जातीय जनगणना होगी और पता चलेगा कि किस जाति के कितने लोग किस क्षेत्र में है तो वहां फिर ऐसे ही नये नये क्षत्रप पैदा हो जाएंगे जो पूरी जाति का ठेका लेने लगेंगे। एक खतरा यह भी है कि इसके बाद फिर एक बार आरक्षण का मुद्दा गरमाया जाएगा।
माना जा रहा है कि ओबीसी की संख्या का पता चलते ही ओबीसी आरक्षण को बढ़ाए जाने की मांग जोर पकडऩे लगी। किसी राजनीतिक दल में इतना मादा नहीं है कि वह इसका खुलकर विरोध कर सकें । देश ने पिछले करीब 75 सालों में देख लिया है कि आरक्षण का कितना लाभ मिला है । आरक्षण के नाम पर केवल और केवल राजनीति ही होती रही है अगर इसी तरह के हालत रहा तो आने वाले 750 साल में भी आरक्षण न तो खत्म होगा और ना ही लोगों का सामाजिक उत्थान हो पाएगा। एक और तो जात पात को खत्म करने की बात होती है, गंगा जमुना तहजीब का नारा दिया जाता है, ऐसा कहने वालों को बहुत ही प्रगतिशील, बुद्धिजीवी माना जाता है लेकिन वही लोग दूसरी ओर जात पात के नाम पर डंके की चोट पर राजनीति होती है । बुद्धिजीवी वर्ग भी धर्म की बात आने पर पूंछ पर खड़ा हो जाता है लेकिन जातिवाद के नाम पर उनमें कोई चर्चा नहीं होती। कौन नहीं जानता कि जात पात की राजनीति करने वाले कुछ नेता केवल अपना विकास करते हैं। पूरी जाति को समेट कर चलने का नाम लेकर वे अपने घर के लोगों को सांसद, विधायक, एमएलसी बनाते हैं ।ं राज्यसभा में उसी परिवार के लोग भेजे जाते हैं लेकिन अंधभक्ति ऐसी है कि लोग उसी परिवार का गुणगान करते रहते हैं। इस समय एक मानसिकता अंध भक्तों को लेकर बनी हुई है मोदी समर्थकों को अंधभक्त कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है लेकिन कौन ऐसा नेता नहीं है जिसके पास अंध भक्तों की ऐसी ही जमात है । वह जमात उस नेता के बारे में कुछ भी सुनना नहीं चाहता वह भले ही सजायाप्ता हो लेकिन आंख मूंदकर उसका समर्थन किया जाता है। जातीय जनगणना के बाद उस दौर के एक बार फिर से लौट कर आने का खतरा है। भारतीय जनता पार्टी भी हिंदू की राजनीति करते करते ओबीसी की राजनीति करने लगी है। यही कारण है कि बिहार में जातिगत गणना के समर्थन में भाजपा भी है। आने वाले दिनों में एक बार फिर बिहार में जात पात के नाम पर आग लगने वाली है। बिहार में कोई निवेश नहीं करना चाहता। यह कोई नहीं देखता। बिहार के लोग दूसरे प्रदेशों में मजदूरी करने, रिक्शा चलाने, या नौकरी करने को विवश हैं। लेकिन अब जैसे हालात बन रहे हैं,यहां निवेश नौकरी को भूल कर लोग जात पात का झंडा लेकर सडक़ों पर खून खराबा के लिए तैयार नजर आएंगे किसी को इस बात की चिंता नहीं कि बिहार में निवेशक क्यों नहीं आते किसी को इस बात की चिंता नहीं की बिहार के युवा दूसरे शहरों में जाकर पढ़ाई कर यूपीएससी या दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाब होते ह, तो ्िबहार में शिक्षा का बेहतर माहौल क्यों नहीं दिया जाये । सबको केवल जात पात की ही चिंता है इसी कारण बिहार का यह हाल बना हुआ है।
बिहार में कितने सालों से पिछड़ों की राजनीति हो रही लेकिन पिछड़ों का कितना विकास हो पाया है? अगर वाकई पिछड़ों का उत्थान हुआ होता तो बिहार आज देश के शीर्ष राज्यों में शुमार होता लेकिन वह तो अंतिम पायदान के लिए संघर्ष करता रहता है।