Dumka,16 Apr: राजकीय पुस्कालय की ओर से जिला प्रशासन दुमका द्वारा आयोजित दो दिवसीय साहित्य उत्सव का उद्घाटन उपायुक्त रविशंकर शुक्ला एवं जिला प्रशासन के अन्य वरीय अधिकारियों तथा सम्मानित अतिथियों द्वारा दीप प्रज्वलन कर किया गया। 17 अप्रैल तक चलने वाले इस दो दिवसीय उत्सव में देश के कई जाने माने लेख़क, साहित्यकार एवं पुस्तक प्रेमी भाग ले रहे हैं।
उद्घाटन के उपरांत प्रथम सत्र में “मेरे जीवन मे पुस्तकालय” विषय पर परिचर्चा हुई। सत्र का संचालन चंद्रहास चौधरी ने किया।
इस दौरान रणेन्द्र टीआरआई के निदेशक ने कहा कि किसी व्यक्ति के ओहदे का अंदाज़ा उसके घर के निजी पुस्तकालय से लगाया जा सकता है। पिता मुझे इंजीनियर बनाना चाहते रहे पर किताबों ने मुझे बहुत कुछ बना दिया। किताबों ने मेरे सारे सपने को पूरा कर दिया। किताबों और पुस्तकालय का आकर्षण वह रोग है जिसे लग जाता है वह मुक्त नहीं हो सकता है।
इस दौरान महादेव टोप्पो ने कहा कि छात्र जीवन में ही पुस्तकालय से पुस्तक लेकर पढ़ा करता था। तब मुझे यकीन नहीं था कि एक दिन मैं भी लेखक बनूँगा और मेरी किताबें पुस्तकालय में होगी। दुमका में साहित्य का यह जो अभियान शुरुआत हुआ वह झारखंड के हर जिले तक पहुँचना चाहिए।
प्रोफ़ेसर चेतन ने कहा मेरा पहला पुस्तकालय मेरे घर की अपनी निजी लाइब्रेरी थी जिसे पिताजी ने समृद्ध किया था ।वहीं से मुझे पुस्तकों से जुड़ाव बना।
इस दौरान चुंडा सोरेन सिपाही ने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में भाषा और साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान है।इस पुस्तकालय में संथाली भाषा के महत्वपूर्ण पुस्तकों को रखा जाना चाहिए।
इस दौरान अनुज लुगुन (साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित )ने कहा कि यह हूल की धरती है जहां आज साहित्य का यह उत्सव हो रहा है।यह भी एक प्रकार का साहित्यिक सांस्कृतिक हूल ही है।आज अगर यहाँ तक पहुंचा हूँ तो पुस्तकालय के रास्ते से होकर पहुँचा हूँ।
इस दौरान लेखक रजत उभयकर ने कहा कि पुस्तकालय एक ऐसा स्थान जहाँ से बेहतर जीवन की कल्पना की जा सकती है।
इस दौरान लेखक मिहिर वत्स ने कहा कि सिर्फ पाठ्यक्रम से हटकर भी पुस्तकें पढ़ें तभी जीवन में कुछ बेहतर कर सकते हैं, क्योंकि पुस्तकालय के अंदर जीवन है।
इस दौरान दुमका के लेखक विनय सौरभ ने कहा कि जिला प्रशासन का आभारी हूँ कि उन्होंने पुस्तकालय को बहेतर बनाने का कार्य किया है और आज यहां पुस्तकों पर बात हो रही है। जेब खर्च के पैसे बचाकर किताबें पत्रिकाओं को पढ़ता था।
इस दौरान साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित लेखक निलोत्पल मृणाल ने कहा कि दुमका आज लोगों को गूगल की संकरी गली से निकालकर पुस्तकालय तक पहुँचा रहा है।आज का यह साहित्य उत्सव साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन की तरह है जिसे आने वाले वर्षों में याद किया जाएगा।
दूसरे सत्र में वन्य जीव संकट पर चर्चा
कार्यक्रम के दूसरे सत्र में पक्षी वैज्ञानिक विक्रम ग्रेवाल ने भारत में वन्य जीव संकट पर पीपीटी के माध्यम से प्रस्तुति दी जिसमें वन्य जीवो के प्रति आम जनों को सजग एवं संवेदनशील बनाने को लेकर कई महत्वपूर्ण बातें कहीं।
उन्होंने कहा कि जंगल के घटने से वन्यजीव घट रहे हैं ।ऐसे में वन्यजीवों का संरक्षण एक बड़ी चुनौती है। प्रकृति में नदी जंगल की मां होती है जिसका संबंध वन्यजीवों से है।
इस सत्र में कई सवाल आम जनों द्वारा पूछे गए इसका संतोषजनक जवाब पक्षी वैज्ञानिक विक्रम ग्रेवाल ने दिया।
तीसरा सत्र: आदिवासी साहित्य दशा और दिशा पर चर्चा
तीसरा सत्र आदिवासी साहित्य दशा और दिशा पर केंद्रित रहा जिसमें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित अनुज लुगुन एवं वरिष्ठ आदिवासी लेखक महादेव टोप्पो ने अपने अपने विचार व्यक्त किए।
सत्र का संचालन अनुज लुगुन ने किया। इस सत्र में अनुज लुगुन ने कहा कि जब हम आदिवासी साहित्य की बात करते हैं तो आदिवासी जीवन और सांस्कृति की बात होती है। आदिवासी साहित्य का अपना वृहद इतिहास है। इसकी परंपरा में लोकगीत एवं लोक कथाएं भरे पड़े हैं जो आदिवासी साहित्य को समृद्ध करते हैं।अनुज लुगुन ने कहा कि आदिवासी समाज की अभिव्यक्ति उसकी ज्ञान परंपरा है। लोक गाथा में जो संदेश है वह आदिवासी समाज का लोक चिंतन है। कई ऐसी मौखिक अभिव्यक्तियां हैं जिनका अनुवाद अभी तक नहीं हो सका है। आदिवासी ज्ञान परंपरा एवं उसके चिंतन का वैश्विक संदर्भ रहा है जिसको व्यापक फलक पर देखा एवं परखा जाना चाहिए। जब खड़ी बोली हिंदी अपना विकास कर रही थी ठीक उसी वक्त आदिवासी साहित्य की लिखित परंपरा भी धीरे-धीरे समृद्ध हो रही थी। आदिवासी साहित्य आदिवासी समाज की समस्याएं संघर्ष और राजनीतिक चेतना प्रखर है,जो आज देखा जा रहा है।
महादेव टोप्पो ने कहा आदिवासी साहित्य की परंपरा लोकगीत एवं लोक कथाओं से होकर गुजरती है जिसका प्रकृति से गहरा संबंध रहा है। 1970 80 के दशक में आदिवासी साहित्य का नया स्वरूप उभर कर सामने आ रहा था जिसमें सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों की अभिव्यक्ति मुखर हो रही थी। 90 के दशक के बाद बड़ी संख्या में नए आदिवासी लेखक उभर कर आए जो मुख्यधारा के पत्र-पत्रिकाओं में आदिवासी साहित्य को सामने लाने का कार्य कर रहे थे।
इसी कड़ी में आदिवासी विमर्श को रेखांकित करते हुए अनुज लुगुन ने कहा कि पारंपरिक मूल्यों मिथकों को आधुनिक संदर्भ में व्याख्या करने का जो कार्य हो रहा है वह आदिवासी विमर्श का महत्वपूर्ण अंग है।
इस सत्र में कई सवाल आम जनों द्वारा पूछे गए जिसका संतोषजनक जवाब दिया गया।