गंगा की छाती पर मैंने लाशों को पटते देखा…अँगना में राष्ट्रीय काव्य गोष्ठी

आज अंगना के व्हाट्सएप पटल पर काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें देश के विभिन्न शहरों से 10 रचनाकारों ने काव्य पाठ में अपनी भागीदारी दी। गोष्ठी में प्रस्तुत रचनाएं कोरोना महामारी की पीड़ा, हास्य, व्यंग, प्रेम और जीवन के संघर्ष के अनेक रंगों से रँगी थी। ज्योत्स्ना अस्थाना की कविता ‘यह कैसा संसार कि यह कैसा संसार साथी है.. यह कैसा संसार” श्रीमती आरती श्रीवास्तव की कविता मोबाइल की उपयोगिता पर थी “जब ना था मोबाइल हाथ में, कोसा करती थी दिन रातों को, जब से आया मोबाइल हाथ में भूल गई फर्क दिन रातों में।’ मोतिहारी से जुड़ी कवयित्री मधुबाला सिन्हा की कविता की पंक्तियां थी “मन के ताजमहल में सूरत उसकी मैंने छुपाई है, तोड़कर पिंजरा उड़े न पंछी मन में आस जगाई है’ । नई दिल्ली से इंदु मिश्रा की ग़ज़ल ने चार चांद लगा दिया ” खुदा करे कि हर होंठ पर मुस्कान हो जाए’ गमों की शाम का इस तरह से अवसान हो जाए ।” वीणा पांडेय भारती की कविता रही “क्यों बार-बार मुझको बुलाए आईना, चेहरे को नया चेहरा दिखाए आईना” शकुंतला देवी की कविता ने निराशा को दूर भगाया “बिना खर्च के मुस्कुराने में क्या है, हंसने में क्या है हंसाने में क्या है” निवेदिता श्रीवास्तव की सरस पंक्ति थी “मुहब्बत ठहर तू जरा साथ देना , रस्ता कठिन और जहां बेकदर है”, छाया प्रसाद की गांधारी से प्रश्न पूछती कविता थी “इतिहास पूछता है गांधारी, तूने आंखों पर पट्टी क्यों बांधी?” डॉ. संध्या की कविता आज की स्थिति से जूझती कविता रही “बूंद बूंद पानी दाने को, श्रमिको को मरते देखा, गंगा की छाती पर मैंने लाशों को पटते देखा।” और वरुण प्रभात ने भी अपनी कविताओं के सुंदर गायन से काव्य गोष्ठी को आनंददायी बनाया। गोष्ठी में अरविंद श्रीवास्तव, ममता सिंह आदि श्रोतागण उपस्थित रहे।
गोष्ठी की अध्यक्षता श्रीमती छाया प्रसाद और संचालन वीणा पांडेय भारती ने किया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ संध्या द्वारा किया गया।

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