सरकार और किसानों के बीच आठवें दौर की हुई बातचीत बिना किसी नतीजे के समाप्त होने का सीधा अर्थ है कि दोनों ही पक्ष अपने-अपने रुख पर अड़े हुए हैं जिससे गतिरोध टूटने का नाम नहीं ले रहा है. देश के लिए इस स्थिति को किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता. राजधानी की सरहदों पर डेरा डाले किसान मौसम की मार भी झेल रहे हैं और कंपकंपाती ठंड में वर्षा से भी भीग रहे हैं. किसी को भी अच्छा नहीं लग रहा है किसानों का यह हाल. सरकार उनके धैर्य की और परीक्षा न ले. अबतक लगभग 60 से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है. कुछ ने आत्महत्याएं भी की हैं. नया साल अधिकतर लोगों ने अपने बाल-बच्चों के साथ मनाया. कुछ घर में रहे तो कुछ पिकनिक स्पॉटों पर गए. लेकिन हमारे ये लाखों किसान भाई दिल्ली की सीमाओं पर बारिश में भीगते रहे क्योंकि पहली जनवरी को दिल्ली-एनसीआर में सुबह में काफी बारिश हुई थी. इनकी हालत पूरा देश देख रहा है. कुछ तो ऐसा है कि इन्हें खाए जा रहा है और ये सरकार से कानून वापस लेने की मनुहार कर रहे हैं. कोई भी कायदा-कानून इंसानों से बड़ा नहीं हो सकता. ऐसा क्या फंसा है उन कानूनों में कि सरकार किसानों की बात सुन नहीं रही. वैसे तो लोकतंत्र में सरकार से बड़ी कोई संस्था नहीं होती, फिर भी किसी से पूछना है तो पूछ लीजिए और किसानों से बात कर आंदोलन को समाप्त करिए.
इस किसान आन्दोलन की शुरूआत तीन महीने पहले पंजाब से शुरू हुई और बढ़ते- बढ़ते यह दूसरे राज्यों में भी फैल गया. हालांकि विगत वर्ष जून के महीने में कोरोना काल में केन्द्र सरकार
अध्यादेशों की मार्फत से तीन नये कृषि कानून ले आई थी मगर इन पर बवाल तब मचा जब अक्तूबर महीने में संसद में इन अध्यादेशों को विधेयकों के रूप में पेश करके कानूनों में परिवर्तित किया गया. संशय की स्थिति में कृषि संगठनों ने इन्हें रद्द करने की मांग उठानी शुरू कर दी. किसानों का आन्दोलन तब से ही जोर पकडऩे लगा और इसमें कुछ नई मांगें भी जुडऩी शुरू हो गईं जैसे नये बिजली विधेयक में संशोधन व पराली जलाने पर किसानों पर भारी जुर्माना. यह सच है कि पंजाब-हरियाणा में पहले किसानों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को ही पक्का बनाने की मांग रखी थी मगर जब संसद में तीनों कानून बन गये तो किसानों ने इन कानूनों को रद्द करने की मांग को अपना मुख्य लक्ष्य निर्धारित कर दिया और न्यूनतम समर्थन मूल्य को संवैधानिक अधिकार बनाने की लड़ाई छेड़ दी. जो भी नई कडिय़ां बाद में जुड़ीं, वो इसलिए जुड़ीं कि आंदोलन लंबा खिंचता गया. अगर आंदोलन पहले हफ्ते में समाप्त कर लिया गया रहता तो यह स्थिति नहीं आती. किसानों के बीच जो राजनीतिक दल घुस आए हैं, वे पहले नहीं थे. पहले पर्दे के पीछे रहे होंगे. अब तो उनके झंडे, उनके नेता मंचों पर शिरकत कर रहे हैं.
सरकार को सोचना चाहिए कि भारत गांवों का देश है. करीब 6.5 लाख गावों में 60 करोड़ लोग रहते हैं जिनकी जीविका का साधन मुख्य तौर पर खेती और मजदूरी है. भारत दुनिया का नंबर वन चावल निर्यातक है. अगर इतनी बड़ी ऊंचाई भारत को यहां के किसानों ने दी है तो उन्हें नमन करना चाहिए. आप उनकी बात भी नहीं सुन रहे हो! हां, यह भी सच है कि अब किसान संगठन भी अपनी जिद पर उतर आए हैं. उन्हें भी इगो परे छोड़कर वार्ता के टेबुल पर जाना चाहिए. दो कदम आप बढि़ए, दो कदम सरकार बढ़े. समाधान तो निकल ही आएगा. बड़े से बड़े मसले का समाधान वार्ता से निकल आता है. यह अपने अन्नदाता की बात है जिसका समाधान सरकार को को ढ़ूंढऩा है. यह सरकार वही है जिसे 6.5 लाख गांवों के वोटरों ने चुना है. अपने लोग हैं, अपनी सरकार है और 40 दिनों से समस्या का हल नहीं निकल रहा है. 7वीं वार्ता में जब मंत्रियों ने किसानों के साथ उनका लंगर मांगकर खाया तो हमें लगा कि माहौल बन रहा है. समाधान लगता है करीब आ चुका है. नया साल किसान भाई अपने गांव में अपने लोगों के साथ मनाएंगे लेकिन 8वीं वार्ता हतोत्साहित कर गई. अगली तारीख 8 जनवरी तय हुई है. उम्मीद की जानी चाहिए कि समाधान निकल आए. इस बीच किसी तरह की कटुतापूर्ण बयानबाजी नहीं होनी चाहिए जैसा कि नागपुर के कथित किसान नेता अरुण बनकर ने मुलताई और इटारसी में बयान दिया. निश्चय ही यह उकसाने वाला बयान है. उन्होंने कहा है कि यदि केंद्र सरकार किसानों पर गोली चलाएगी तो मोहन भागवत सहित आरएसएस मुख्यालय को उड़ा देंगे…. बनकर महाराष्ट्र राज्य किसान महासभा के सचिव हैं. किसान ऐसी भाषा कभी नहीं बोलता. सरकार के भी कु़छ मंत्री और नेता आहत करने वाले बयान दे रहे हैं. उभयपक्ष को ऐसे बयानों से बचना चाहिए क्योंकि किसान अपनी संभावित परेशानियों के समाधान के लिए मोर्चे पर डटे हैं. व्यवधान दूर करिए, समाधान निकालिए.