सुप्रीम कोर्ट के दिशा निदेश को नजरअंदाज किया गया
जमशेदपुर4 जून ( संवाददाता):-
चर्चित आयकर आयुक्त डॉ श्वेताभ सुमन ने नैनीताल हाईकोर्ट में दायर अपील (164/2019) में निचली अदालत के द्वारा सुनाई गई सजा को चुनौती देते हुए इनके पक्ष के अति-महत्वपूर्ण दस्तावेजों को अनदेखी करने का आरोप लगाया है।
डॉ श्वेताभ सुमन पर आय से अधिक सम्पति (यानि बेनामी सम्पति) का मामला सीबीआई कोर्ट देहरादून में लंबित था जहां इन्हें अन्य 2 आरोपियों के साथ सजा सुनाई गई । फिलहाल उन्हें जमानत मिल गयी है ।डॉ सुमन ने अपील में कहा है कि निचले कोर्ट का आदेश गलत है, क्योंकि जब सीबीआई ने खुद ही कोर्ट में अपने चार्जशीट के पारा नंबर 223 में यह स्वीकार कर लिया है कि उनका किसी अन्य व्यक्ति से पैसे का लेनदेन कभी हुआ ही नहीं, तो फिर माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अलोक में इनपर बेनामी सम्पति का कोई केस बन ही नही सकता। अत: निचली अदालत का निर्णय गलत ह।
संबंधित सीबीआई अधिकारी ने कोर्ट के समक्ष अपने कुल 230 पारा की स्वीकारोक्ति में पारा नंबर 223 में यह स्पष्ट स्वीकार किया कि…..
*”यह सही है श्वेताभ सुमन का अपने किसी पारिवारिक सदस्य या किसी अभियुक्त से किसी पैसे के लेनदेन का कोई दस्तावेज या बैंक ट्रांजेक्शन (लेनदेन) का दस्तावेज इस पत्रावली पर नहीं है क्योंकि वह मुझे नही मिले थेद्य”*
इतना ही नहीं पारा नंबर 200 में भी सीबीआई के अधिकारी ने कोई साक्ष्य नहीं मिलने को माना है जिसमे कहते हैं ….
*”सर्च के दौरान मुलजिम श्वेताभ सुमन का दूसरे मुलजिमो से नकद पैसे का लेनदेन या पैसे के ट्रांसफर के बाबत कोई दस्तावेज नहीं मिला जिससे यह साबित हो कि उसका लेनदेन अन्य मुलजिमो से हुआ हैद्य यह ठीक है किसी प्रोपर्टी की खरीद फरोख्त के डोक्युमेंट में श्वेताभ सुमन का नाम नहीं था.
सीबीआई की कोर्ट के समक्ष इन स्वीकारोक्तियों के आधार पर डॉ सुमन का दावा है कि उन पर झूठा केस बनाया गया एवं साजिश के तहत उनको फंसाया गया. डा सुमन का कहना है कि जब सीबीआई ने खुद अदालत में माना कि किसी से कभी उनका पैसे का लेन देन हुआ ही नहीं तो उनपर बेनाम संपत्ति का मुकदमा क्यों चला और अदालत ने उन्हें बेनामी संपत्ति रखने का दोषी कैसे माना। सीबीआई के आईओ ने 2 अप्रैल 18 को अपने वयान के पारा 223 में माना कि यह सही है कि श्वेताभ सुमन का अपने किसी पारिवारिक सदस्य या किसी अन्य अभियुक्त से पैसे के लेने देन का कोई दस्तावेज या बैंक ट्रांजेक्सन का कोई प्रमाण नहीं है . सीबीआई की इस स्वीकारोक्ति के अलावे अन्य स्वीकारोक्तियों से यह केस स्वत: खारिज हो जाना चाहिये लेकिन न्यायालय ने कहीं भी अपने निर्णय में इन बातों को नहीं दर्शाया है जो अन्याय है। (निर्र्णय का पेज 232-247पारा 282-288).सीबीआई की पूरी कार्रवाई सूत्रों की सूचना के आधार परथी लेकिन उन सूुत्रोंके आधार परकी गयी कार्रवाई में उसे कुछ भी हाथ नहीं लगा। श्वेताभ सुमन उनकी पत्नी एवं पुत्र के नाम पर कोई अचल संपत्ति नहीं मिली न ही इनकी पत्नी एवं बेटा केनाम पर कोई बैंक एकाउंट मिला। श्वेताभ की जिम्मेदारी अपनी पत्नी एवं पुत्र की है न कि अन्य अभियुक्तगणों की। बेनामी संपत्ति के इस मामले में सीबीआई के किसी गवाह नेऐसी कोई पुष्टि नहीं की कि उसे श्वेताभ सुमन से पैसे मिले थे जिससे उसने कोई संपत्ति खड़ी की। सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि यदि किसी सरकारी अधिकारी का किसी संपत्ति से कोई वित्तीय संबंध नहीं हैतो वह संपत्ति उसकी बेनामी संपत्ति नहीं कही जा सकती। (जय लाल पोद्दार बनाम बीपी हाजरा 1974एससीसी 3) सिर्फ शक और अनुमान के आधार पर न्यायालय निर्णय नहीं ले सकता है और न ही इस आधार पर सीबीआई कोई निष्कर्ष निकाल सकता है। पूरी कार्रवाई में उसका सोर्स आफ इनफार्मेसन गलत साबितहुआ। डा सुमन के साथ 10 अन्य रिश्तेदारों एवं मित्रों के यहां भी छापामारी के पहले भी सीबीआई ने कोई प्रारंभिक जांच नहीं की और न्यायालय ने भी इसपर ध्यान नहीं दिया। इन्ही सब बातों के आधार पर श्वेताभ सुमन ने उच्च न्यायालय में अपील दायर की है और दावा किया है कि सीबीआई न्यायालय के इतिहास में शायद यह पहला केस होगा जिसमे बिना किसी अकाट्य साक्ष्य के एक अधिकारी के साथ साथ अन्य दो निर्दोषों को भी सजा दी गई.
डॉ सुमन का दावा है कि यह निर्णय न्यायालय के तौर तरीकों पर एक बड़ा प्रश्न है कि क्या
कोर्ट के दस्तावेज की न्यायालय अनदेखी कर सकता है ?उन्होंने लिखा है कि सीबीआई कोर्ट का निर्णय माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के प्रतिकूल है। क्योकि कोर्ट ने अभियुक्त के पक्ष के महत्वपूर्ण पक्षों को नजरअंदाज किया।