रामगोपाल जेना
चक्रधरपुर।
तकनीकी कारणों से न तो केंदू पत्ता का ठीकेदार ही जंगल ले रहा है और न ही केंदू पत्ता तोड़ने वाले मजदूर ही मिल रहे है इसमें विभिन्न प्रकार की तकनीकी कारण बताए जा रहे है वही देखा जाय तो सरकार को राजस्व में भी कमी आयी है जब जंगल ही नही बिकेंगे तो राजस्व कहा से आएगा। इसमें कैशलेस भी एक कारण है इसको लेकर भी मजदूरों में परेशानी की बात सामने आरही है । रॉयल्टी को लेकर भी विशेषकर फिक्सड दर भी एक कारण है इसको लेकर भी जंगल नही बिक पाना एक।महत्वपूर्ण कारण है साथ ही इस बात की जानकारी मिली है कि केंदू पत्ता तोड़ने का कार्य महज 15 से 20 दिन का होता है ऐसे में मजदूरों को बैंक के माध्यम से मजदूरी भुगतान करना एक बड़ी समस्या है हालांकि केंदू पत्ता प्रथमिक संग्रह समिति है पर उसके समक्ष भी भुगतान को लेकर परेशानी की बात सामने आ रही है मिलाजुलाकर देखा जाय तो कुछ नियमो को जबतक लछिला नही बनाया जाता है तब तक केंदू पता को लेकर जंगल का बिक पाना बमुश्किल दिखाई पड़ रहा है ।कोल्हान विषेशकर पश्चमी सिंहभूम जिले के जंगलों के भी यही हाल बताया जा रहा है इस बात की भी जानकारी मिली है कि झरखण्ड में पूर्व की रघुवर दास सरकार ने वर्ष 2015 में केंदू पत्ता नीति बनाई थी पर उस समय भी उस नीति के तहत कार्य नही हुआ जिसके कारण मजदूरों की परेशानी दूर नही हो पाई इसमें इस बात को ध्यान दिया गया था ।जिसके कारण आज भी परेशानी जस की तस है ।
यही सब कारण है कि झरखण्ड में केंदू पता का खरीददार नही मिल रहा है। झारखंड वन विकास निगम इस साल केंद्र पत्ता बेचने के लिए दो बार नीलामी करा चुका है।
इसके बावजूद पूरी तरह जंगल नहीं बिक पाना चिंता का विषय है। अब तक मात्र 1.61 करोड़ का ही केंदू पता बिक पाया है ।
लगातार केंदू पता कि नीलामी में गिरावट आने को लेकर जहाँ सरकार को राजस्व मिलने में कमी आयी है वही सुदूरवर्ती इलाके के मज़दूरों के समक्ष भी रोजगार की भारी परेशानी आ खड़ी हुई है
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पूरी लॉट की बिक्री हो जाए तो करीब 8 लाख मानक बोरा केंदू पत्ता टूटता है ।
1 मानक बोरा में 1000 पोला बंडल होता है इसमें 25लाख मानव दिवस का सृजन होता है इसमें करीब एक सौ करोड़ रुपये मजदूरों के बीच ही भुगतान होती है इसमें 90 फीसदी महिलाएं भी कार्य करती है ।
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वर्ष 2017 -18 में 108 करोड़ की हुई थी बिक्री
लगातार केंदू पता जंगल की बिक्री नही होना बताया जा रहा है कि निगम का नियम कानून काफी टेढ़ा है इसका सीधा असर मजदूरों व सरकार के राजस्व पर पड़ रहा है