होली की यादें : डा. निधि श्रीवास्तव की कलम से
होली आते ही न जाने कितनी रंग बिरंगी यादें मन में गुलेल बिखेरने लगती हैं. बचपन की धमा चौकड़ीवाली होली, स्कूल कॉलेज के दोस्तों संग रंग-गुलाल वाली खिलखिलाती होली फिर रसोई की जिम्मेवारियों भरी पारिवारिक होली, अपने स्कूल की गंगा जमुनी संस्कृतिवाली सद्भावना भरी होली और इस बार कोरोना के खौफ तले होली…मैंने होली के कितने ही अनूठे रंग अनुभव किये हैं. मुझे बहुत याद आती है बचपन की हंसती खिलखिलाती होली.
होली के एक-दो दिन पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती थी. रंगों की पुडिय़ा, छोटी बाल्टी, आलू को काट कर बनाए गए ठप्पे, गुब्बारे और पिचकारी. कभी ननिहाल अररिया तो कभी दादा-दादी के पास इलाहाबाद और कभी अपने घर पर. हर होली में सुबह से बस एक ही काम था, सबको रंगों से सराबोर करना और खुद भी सराबोर रहना…मां की रसोई से गुझिया, पुआ पकवान और दहीबड़े को बीच-बीच में खाना और फिर से भाई बहनों और पूरे मुहल्ले के बच्चों के साथ धमाचौकड़ी में लग जाना, ऐसी होती थी सुबह की होली. फिर शाम में हम भाई बहन नए कपड़े पहन कर सूती साड़ी में मां और सफेद मलमल के बाहों पर गिलोय किये गए कुर्ते में पापा के साथ आस पड़ोस और रिश्तेदारों के साथ फिर उसी उत्साह से गुलाल से सूखी होली होती थी. याद आती है मां का पूआ, दहीबड़ा बनाते बनाते ही सबसे होली खेल लेना. हम बच्चों का मां-पापा, दादी-दादा और सभी को पीछे से जाकर रंग लगाकर खुश हो जाना. आज जब बच्चों को रंग से परहेज करते और अपने अपने घरों में कैद हो कर होली को बस किसी तरह निभाते देखती हूं तो अपने बचपन की मस्ती बरबस ही याद आ जाती है.
हर होली में बचपन की एक घटना जरूर याद आती है. तब हमलोग पटना में थे, होली के एकदिन पहले ही होली में मुझे क्या क्या चाहिये इसकी लिस्ट मैं अपने पापा को थमा दिया करती थी और होली की सुबह से ही उनका इस्तेमाल शुरू कर देती थी. एक बार मेरी लिस्ट में पीतल की पिचकारी थी और मेरे पापा पीतल की पिचकारी न लाकर वैसी ही प्लास्टिक की पिचकारी मेरे लिये ले आए थे. शाम में ऑफिस से आने पर जब मैंने सारे सामान का मुआयना किया तो पिचकारी मेरी फरमाइश के अनुसार नहीं आई थी. मेरा पैर पटकना रोना-धोना शुरू हो गया. सब मुझे समझाने में लग गए लेकिन मैं कहां माननेवाली थी. पीतल की पिचकारी आस पास मिलनेवाली भी नहीं थी. हार कर मेरे पापा रात के नौ बजे मुझे लेकर बाजार गए और मेरी पसंद की पीतल की पिचकारी खरीदी गयी, तब जाकर मैं हंसती मुस्कुराती घर पहुंची. मां से जिद्द के लिये थोड़ी डांट पड़ी लेकिन मुझ पर कहां कोई असर होनेवाला था. मैं तो मगन थी अपनी सुन्दर पीतल की पिचकारी के साथ रंग बिरंगी होली में.
(लेखिका विवेकानंद इंटरनेशनल स्कूल की प्राचार्या हैं)