भाजपा-जदयू में खटास के बाद बिहार में राजनीतिक समीकरण बदलने के संकेत मिल रहे हैं. राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि जिस नीतीश कुमार ने 2013 से 2020 तक कई चौंकाने वाले फैसले लिए हैं, 2021 में भी कोई बड़ा फैसला लेकर पूरे देश को चौंका सकते हैं? यह अनुमान इसलिए भी लगाया जा रहा है कि नीतीश कुमार अब यह खुलकर कहने लगे हैं कि वह खुद बिहार के मुख्यमंत्री बनना नहीं चाहते थे. बीजेपी के जोर-जबरदस्ती की वजह से वह मुख्यमंत्री बनने पर मजबूर हुए. उन्हें न तब मुख्यमंत्री बनने का लोभ था और न आज है…..यह बयान उन्होंने पिछले दिनों पटना में आयोजित राष्ट्रीय परिषद की बैठक के क्रम में दिया. इसलिए शपथ ग्रहण करने के मात्र एक महीने के भीतर यह बयान काफी मायने रखता है. बिहार सरकार का कैबिनेट विस्तार अभी होना बाकी है. इसके पहले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह बयान राजनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है. वह भी तब जबकि नीतीश कुमार ने जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर आरसीपी सिंह को जिम्मेवारी सौंप दी है. उनके शायद इसी रुख को देखते हुए राजद की ओर से यह पाशा फेंका गया है कि वे बिहार में तेजस्वी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तावित करें और खुद केन्द्र की राजनीति में जाएं. दरअसल आरजेडी को लगता है कि जेडीयू के 6 विधायक के बीजेपी में शामिल होने के बाद जेडीयू और बीजेपी में एक बार फिर तनातनी की स्थिति बनी हुई है. इसलिए यह प्रस्ताव राजद के उदय नारायण चौधरी की ओर से नीतीश कुमार को दिया गया. केन्द्र की राजनीति का मतलब 2024 में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी. अभी अवसर भी है क्योंकि पूरे विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के लिए एक सर्वमान्य नेता का अभाव है. इधर, यह भी चर्चा थी कि बिहार में सत्तारोहण के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जदयू शामिल हो सकता है लेकिन जिस प्रकार बिहार में भाजपा संख्या के आधार पर मंत्रिमंडल में शामिल हो रही है, उसी अनुपात में केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जेडीयू को स्थान मिलना चाहिए. लेकिन जेडीयू एक वरिष्ठ नेता ने इस अनुमान को कोरा बकवास करार दिया है. लेकिन नीतीश कुमार का बदला तेवर बता रहा है कि कुछ चौंकाने वाला हो सकता है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश कुमार बिहार के प्रभावशाली नेता हैं मगर उनकी पार्टी हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में प्रभावहीन रही क्योंकि यह तीसरे नम्बर पर मात्र 43 विधायक ही जिता पाई. मूल रूप से नीतीश कुमार इस राज्य की समाजवादी धारा के नेता हैं जिनका स्व. जार्ज फर्नांडीज के साथ सबसे निकट का सम्बन्ध रहा. जार्ज फर्नांडीज स्वयं में अपनी राजनीति के अंतिम उत्कर्ष काल में सबसे ज्यादा उलझाव भरे नेता रहे क्योंकि 90 के दशक में स्व. वीपी सिंह के जनता दल के बिखरने पर उन्होंने समता पार्टी बनाई और कालान्तर में इसका गठबन्धन स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरपरस्ती में चलने वाली भाजपा से हो गया. जार्ज फर्नांडीज का यह हृदय परिवर्तन उस समय बहुत से राजनैतिक प्रेक्षकों के लिए आश्चर्य का विषय था. और नीतीश कुमार जार्ज फर्नांडीज की इसी राजनीतिक फसल में तैयार हुए परिपक्व बिहारी नेता हैं. साथ ही अपनी छवि एक आदर्शवादी नेता के रूप में स्थापित करने में एक हद तक सफल रहे हैं (विशेष रूप से गैसल रेल दुर्घटना होने पर जब उन्होंने रेल मन्त्री पद से इस्तीफा देने के बाद). जब भी कुछ उनके स्वभाव के विपरीत उनके आसपास घटित होता है, उन्हें अकुलाहट होने लगती है और इस्तीफा फेंकने में उन्हें देर नहीं लगती. भाजपा के लिए यही सबसे बड़ी दिक्कत है. भाजपा के बिहार कुनबे में इस वजन का कोई नेता अबतक तैयार नहीं हो सका है. अगर नीतीश बिहार छोड़कर केन्द्र की राजनीति में जाते हैं तो उनके समतुल्य भाजपा के पास कोई नेता बिहार में नहीं है. जदयू के बिना भाजपा बिहार में तबतक आगे नहीं बढ़ सकती जबतक राजद के एमवाई की काट तैयार न कर ले. इस काट के रूप में मिलाजुलाकर भाजपा के पास एक नित्यानंद राय दिखते हैं. इसलिए भाजपा बिहार में ज्यादा नंबर लाने के बाद भी जदयू की पिछलग्गू पार्टी है. जो भी हो अरुणाचल प्रकरण बिहार में जरूर कोई नया गुल खिलाएगा. हो सकता है कि माह-दो माह देर लगे लेकिन माहौल ठीक नहीं लग रहा क्योंकि नीतीश कुमार चार-पांच दिनों से न भाजपा के किसी समारोह में जा रहे हैं और न किसी बड़े नेता से मिल रहे हैं.